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* ४२ * कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु *
समाधिकारक सुख प्रदान करने वाला व्यक्ति उसी प्रकार की समाधि प्राप्त करता है; अज्ञानी जीव स्वकर्मानसार विविध गतियों-योनियों में भटकते हैं। ‘उत्तराध्ययनसूत्र' में गुरु साधर्मिक शुश्रूषा से उपार्जित पुण्य का, तथा दोषों की आलोचनारूप पुण्य का फल तथा पंचेन्द्रियों एवं मन के विषयों के प्रति राग-द्वेष के प्रतिफल का तथा कामासक्ति के इहलौकिक-पारलौकिक दुष्फल तथा कान्दी आदि पापभावनाओं से अर्जित पापकर्म का फल भी वर्णित है। इसी प्रकार ‘सूत्रकृतांगसूत्र' में पौण्डरिक का रूपक देकर चार प्रकार के पुरुषों को उसे प्राप्त होने वाले कुफल का, धर्म-अधर्म-मिश्रपक्षीय स्थान वालों का अपने-अपने कर्मों के अनुसार इहलौकिक-पारलौकिक फल, तथा पृथ्वीकायिक से लेकर वैमानिक देवों तक के आहार, उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि आदि कर्मानुसार होते हैं एवं पशु-वध-समर्थक माँसभोजी ब्राह्मणों को भोजन कराने से होने वाले पापकर्म का फल बताया है। आर्द्रककुमार द्वारा वौद्धभिक्षु निरूपित आपसी सिद्धान्तों का खण्डन किया है। इस प्रकार पुण्य-पापकर्म के फल के सन्दर्भ में आए हुए विविध शास्त्रपाठ प्रस्तुत करके कर्मविज्ञान ने सिद्ध किया है कि पुण्य या पाप का फल देर-सबेर से अवश्य मिलता है। कर्मों के विपाक : यहाँ भी और आगे भी
शास्त्रीय प्रमाणों के बावजूद भी पुण्यकर्म और पापकर्मों के फल किन-किन को किस-किस रूप में मिले, इतना ही नहीं, अनेक जन्मों तक जन्म-मरण के चक्र में परिभ्रमण करने के बाद पुण्य और पाप दोनों कर्मों से मुक्त होकर सिद्ध-परमात्मा भी बन सकता है या नहीं? इसका समाधान करने हेतु कर्मविज्ञान ने विपाकसूत्र में उल्लिखित दुःखरूप विपाक और सुखरूप विपाक के क्रमशः पापकर्म और पुण्यकर्म के सुखदायक और दुःखदायक फलों की प्राप्ति का सजीव चित्रण प्रस्तुत किया है।
दुःखविपाक विपाकसूत्र का प्रथम श्रुतस्कन्ध है। इसमें पापकर्मा व्यक्तियों के नाम से दस अध्ययन हैं। सभी अध्ययनों में व्यक्तियों द्वारा पूर्वभव में आचरित पापकर्मों के बन्ध और संचय का तथा आगामी जन्मों में उनके द्वारा उत्तरोत्तर कृत पापकर्मों के कटु और त्रासदायक फलों की प्राप्ति का रोमांचक वर्णन है।
__इन कथानकों से स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि पापकर्मों का दुःखद फल देर-सवेर से मिलता ही है। विपाकसूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध सुखविपाक का संक्षिप्त परिचय ___ इसका प्रथम अध्ययन है-सुबाहुकुमार, जिसने पूर्वभव में हस्तिनापुर में समुख गाथापति के रूप में जन्म लेकर सुदत्त नामक अनगार को विविध-त्रिकरण शुद्धपूर्वक आहारदान दिया और उसके फलस्वरूप अदीनशत्रु राजा के पुत्र सुबाहुकुमार ने जन्म लिया। सुबाहुकुमार ने भगवान महावीर का उपदेश सुनकर श्रावकव्रत ग्रहण किये। यहाँ से वह अनेक बार देवभव में उत्पन्न होकर मनुष्य-जन्म लेगा। अन्त में भगवान महावीर के पास दीक्षित होगा। आराधनापूर्वक समाधिमरण प्राप्त करके अनेक बार देवलोक तथा मनुष्यभव में उत्पन्न होगा। वहाँ से मरकर अन्त में महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होगा। वहाँ सर्वविरति संयम अंगीरकार और आराधन करके सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होगा।
शेष नौ अध्ययनों के नाम इस प्रकार हैं-(२) भद्रनन्दी, (३) सुजातकुमार, (४) सुवासवकुमार, (५) जिनदास, (६) धनपतिकुमार, (७) महाबल, (८) भद्रनन्दी, (९) महच्चन्द्र, और (१0) वरदत्त। इनका सब वर्णन पुण्यशाली सुबाहुकुमार की तरह है। केवल स्व-नाम, माता, पिता, नगरी आदि के नाम में अन्तर है। तत्त्वतः कोई अन्तर नहीं है। पुण्य-पाप के निमित्त से आत्मा का उत्थान-पतन
निश्चयनय की दृष्टि से परमात्म-स्वरूप शुद्ध आत्मा जब तक शुभ या अशुभ कर्मों से घिरा रहता है, तब तक उसका परमात्मरूप विकृत, आवृत, कुण्ठित और सुपुप्त रहता है। ऐसी स्थिति में यदि वह पुण्यकर्मों से मुक्त रहेगा तो उसका सुखद फल, सुगति. सुयोनि, सद्धर्म-प्राप्ति, मनुष्यभव, धर्मश्रमण, सद्गुरु-सत्संग आदि आत्मोत्थान के संयोग मिलने संभव हैं। साथ ही यदि वह पुण्यशाली व्यक्ति यदि सम्यग्दृष्टि प्राप्त करके साधना करता है तो उसके द्वारा गृहीत व्रत, नियम, तप, त्याग, संयम, परीषह-सहन, उपसर्ग-समभाव, क्षमा, दया आदि संवर और निर्जरा के कारणभूत गुण आध्यात्मिक
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