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* कर्म - सिद्धान्त: बिंदु में सिंधु *४१*
तृतीयभंग है - अशुभ और शुभ । अर्थात् - कोई कर्म अशुभ प्रकृति वाला होता है, किन्तु होता है शुभानुबन्धी। जिस व्यक्ति को पूर्वजन्मकृत पाप के कारण यानी जो पूर्वजन्म में पुण्य-पाप के खेल में बाजी हार गया था. किन्तु वर्तमान में जो कुशल खिलाड़ी बनकर पापमयी परिस्थिति में रहकर भी पुण्योपार्जन करके अपने भविष्य को उज्ज्वल बना लेता है, वह पुण्यानुबन्धी पाप का अधिकारी है। इसके उदाहरण के रूप में हम हरिकेशबल मुनि, गोपालपुत्र संगम, चण्डकौशिक सर्प, प्रदेशी राजा आदि को प्रस्तुत कर सकते हैं।
चतुर्थ भंग है - अशुभ और अशुभ । अर्थात्- कोई पूर्व-पापकर्मवश अशुभ प्रकृति वाला होता है और वर्तमान में भी अशुभानुबन्धी होता है। इसे कहते हैं - पापानुबन्धी पाप । जो जीव पूर्वकृत पापकर्म के फलस्वरूप वर्तमान में भी दुःख पाते हैं और भविष्य के लिए भी पापकर्म का संचय करके दुःख के बीज बोते रहते हैं। ऐसे जीव पूर्वजन्म में भी पुण्य-पाप के खेल में बाजी हार गए थे और वर्तमान में भी बाजी हारते जा रहे हैं।
इस भंग के उदाहरण के रूप में हम कालसौकारिक कसाई, धीवर, मच्छीमार, वेश्या आदि को प्रस्तुत कर सकते हैं। महाभारत, मार्कण्डेयपुराण आदि में भी इसी प्रकार की चौभंगी पाई जाती है। सारांश यह है कि पुण्य और पाप की क्रिया भावों पर आधारित है। भावों का परिवर्तन एक ही जन्म में हो सकता है और पूर्वकृत पुण्य या पाप के फलस्वरूप सुखद या दुःखद परिस्थिति पाने पर भी वर्तमान जन्म में परिवर्तन हो सकता है। भावों का परिवर्तन होते ही पुण्यबन्ध का फल पापफल के रूप में और पापबन्ध का फल पुण्यफल के रूप में परिवर्तित हो सकता है। जैसे किसी ने तीव्रभाव से पापमय कृत्यों के कारण अशुभ (पाप) कर्म का बन्ध किया, किन्तु बाद में उसके भावों में परिवर्तन हुआ। वह अपने कृत पापकर्मों की आलोचना, निन्दना, गर्हणा, प्रायश्चित्त आदि करके आत्म-शुद्धि कर लेता है, तो उसे पापकर्म का फल मिलने के बदले पुण्यकर्म का फल मिलता है। इसके विपरीत किसी ने शुभ भावों से पुण्यकर्म किया, उससे पुण्यवन्ध हुआ, किन्तु उस कर्म के उदय में आने से पहले ही उसकी भावना पाप या अधर्म की (अशुभ) हो गई तो उसे पुण्यकर्म के फल के बदले पापकर्म का अशुभ फल मिलता है। इन दोनों विकल्पों के लिए क्रमशः पुण्डरीक और कण्डरीक का उदाहरण प्रस्तुत किया जा सकता है।
पुण्य और पाप के फल : धर्मशास्त्रों के आलोक में
इस लोक या परलोक में किये गए पुण्य और पाप का फल इसी लोक में या कभी-कभी अगले जन्म या जन्मों में देर-सबेर से मिलता ही है, इस सत्य-तथ्य की प्रामाणिकता और सच्चाई को उजागर करने हेतु कर्मविज्ञान ने कतिपय शास्त्रीय फल प्रमाण प्रस्तुत किये हैं।
'दशवैकालिकसूत्र' में चतुर्विध चौर्यकर्म का फल मूकता और बोधिदुर्लभता के रूप में, सुविनीतता और अविनीतता. का फल क्रमशः सुखानुभूति और दुःखानुभूति के रूप में तथा पुण्य-पापकर्मों से युक्त मानवों को सुफल-दुष्फल-प्राप्ति के रूप में प्रस्तुत किये गए हैं। इसी प्रकार 'उत्तराध्ययनसूत्र' में विविध शुद्ध शीलों के पालनरूप पुण्यकर्म के फल, पापकर्मों से धनोपार्जन का दुष्फल, अकाममरण से मृत लोगों के लक्षण और उसका फल, सकाममरण से मृत पुण्यशाली लोगों के पुण्य का सुफल, कामभोगों से अनिवृत्ति और निवृत्ति का फल, अधर्मिष्ठ और धर्मिष्ठ द्वारा आचरित अधर्म और धर्म का फल शरीरासक्त एवं पापासक्त व्यक्ति दुःखद नरक, पापमयी परस्पर विरोधी दृष्टियों का दुष्फल, असुरों और रौद्र तिर्यंचों में उत्पत्ति : कामभोगों में आसक्ति का फल, नरक-प्राप्ति: निदान से प्राप्त भोगों में आसक्ति का दुष्परिणाम; पापकर्मियों को नरक और आर्यधर्मियों को दिव्यगति, अशुभ कर्मों का परिणाम चोर को मृत्युदण्ड, पशुवध-प्रेरक वेद और यज्ञ पापकर्मों से रक्षा करने में असमर्थः वन्दना, स्तुति, प्रवचन - प्रभावना. वैयावृत्य आदि का सुफल बताया गया है। 'आचारांगसूत्र' में भी पापकर्म के प्रवल कारणभूत प्रमाद का तथा स्त्रियों में कामासक्ति का दुष्फल, गुरुकर्मा व्यक्तियों की करुणदशा का निरूपण. स्वयंकृत दुःखद पापकर्मों का कटुफल, शरीरसुख तथा रोगोपचार के लिये नाना प्राणियों वध का कुफल, दूसरों को जिस रूप में पीड़ित करता है; वह उसी रूप में पीड़ा भोगता है, दूसरों को पीड़ित करने वाला उसी रूप में पीड़ा पाता है; आधाकर्मी आहार-सेवन का दुष्फल का वर्णन है। इसी प्रकार 'भगवतीसूत्र' में बताया गया है कि
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