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________________ * विषय-सूची : पंचम भाग * ३३३ * (९) दर्शनमार्गणा के भेद और उनका स्वरूप २१६, (१०) लेश्यामार्गणा के भेद और उनका स्वरूप २१६, (११) भव्यत्वमार्गणा के भेदों का स्वरूप २२0, (१२) सम्यक्त्वमार्गणा के भेद और उनका स्वरूप २२०, क्षायोपशमिक और औपशमिक सम्यक्त्व के कार्यों में अन्तर २२१, (१३) संज्ञीमार्गणा के भेद और उनका स्वरूप २२३, (१४) आहारकमार्गणा के भेद और उनका स्वरूप २२४, चौदह मार्गणाओं के अवान्तर भेद : बासठ २२४, भावमार्गणास्थानों का ग्रहण करना अभीष्ट २२४, ज्ञानमार्गणा और संयममार्गणा में अज्ञान और असंयम क्यों ? २२५, मार्गणास्थानों से प्रेरणा : हेयोपादेय-विवेक २२५। (११) मार्गणास्थान द्वारा संसारी जीवों का सर्वेक्षण-२ पृष्ठ २२६ से २५८ तक ____ चौदह मार्गणाओं के बासट उत्तरभेदों द्वारा जीवस्थान आदि छह का सर्वेक्षण २२६, मार्गणास्थानों में जीवस्थान की प्ररूपणा २२६, मार्गणास्थानों में गुणस्थानों की प्ररूपणा २३१, अज्ञानत्रिक में दो गुणस्थान या तीन? : एक चिन्तन २३२, मार्गणास्थानों में योगों का सर्वेक्षण २३५, काययोग में ही मन-वचनयोग का समावेश क्यों नहीं? २३५, योगों के पन्द्रह भेद २३७, कार्मण काययोग की तरह तैजस काययोग क्यों नहीं ? २३७, निश्चयदृष्टि से सत्य-असत्य, ये दो योग ही २३८, कार्मण काययोग : अनाहारक अवस्था में २३८, मार्गणास्थानों में उपयोगों का सर्वेक्षण २४३, तीन योगों में उपयोगों की प्ररूपणा : विशेषापेक्षा से २४६, मार्गणाओं में लेश्याओं की प्ररूपणा २४८, चौदह मार्गणाओं में अल्प-बहुत्व-प्ररूपणा २४९, इस सर्वेक्षण से प्रेरणा और प्रगति का लाभ २५३, मार्गणाओं में जीवस्थान, गुणस्थान, योग, उपयोग और लेश्यादर्शक यंत्र २५४-२५८। (१२) मार्गणाओं द्वारा गुणस्थानापेक्ष या बन्ध-स्वामित्व-कथन पृष्ठ २५९ से २९५ तक ___ मार्गणा : संसारी जीवों की विविध अवस्थाओं का अन्वेषण २५९, गुणस्थान : जीवों के आध्यात्मिक विकास-क्रम के सूचक २६०, गुणस्थान की विशेषता २६०, मार्गणाओं और गुणस्थानों के कार्य में अन्तर २६0, चौदह मार्गणाओं के नाम २६१, चौदह मार्गणाओं में सामान्यतया गुणस्थान-प्ररूपणा २६२, (१) गतिमार्गणा के माध्यम से बन्ध-विधान २६४, नरकगति के अधिकारी नारकों के लक्षण २६५, नरकगति में सामान्यतया कितनी प्रकृतियों का बन्ध? २६५, नरकगति में सामान्यतया ये उन्नीस प्रकृतियाँ क्यों नहीं बँधती? २६५, प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती नारक में सौ प्रकृतियों का बन्ध २६६, सास्वादन गुणस्थानवर्ती नारक छियानवे प्रकृतियाँ बाँधते हैं २६६, मिश्र एवं अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती में सत्तर और बहत्तर प्रकृतियों का बन्ध २६७, अविरत सम्यग्दृष्टि नारक जीव के बहत्तर प्रकृतियों का बन्ध : क्यों और कैसे? २६८, सप्तनरकभूमि-स्थित नारकों की अपेक्षा बन्धस्वामित्व-प्ररूपणा २६८, सातवें नरक में पहले से चतुर्थ गुणस्थानवर्ती नारकों का बन्धस्वामित्व २६९. तिर्यंचगति में बन्धस्वामित्व की प्ररूपणा २७१, पर्याप्त-तिर्यंचों के बन्धस्वामित्व की प्ररूपणा २७१, पर्याप्त-तिर्यंचों के एक सौ सत्रह प्रकृतियों की बन्धस्वामित्व-प्ररूपणा २७१, सास्वादन गुणस्थान में पर्याप्त-तिर्यंचों की वन्धस्वामित्व-प्ररूपणा २७१, तृतीय गुणस्थानवर्ती पर्याप्त-तिर्यंचों की बन्धस्वामित्व-प्ररूपणा २७२, तृतीय गुणस्थानवर्ती पर्याप्त-तिर्यंचों की अबन्धयोग्य प्रकृतियाँ २७२, चतुर्थ गुणस्थानवर्ती पर्याप्त-तिर्यचों के बन्धस्वामित्व की प्ररूपणा २७२, पंचम गुणस्थानवर्ती पर्याप्त-तिर्यचों के बन्धस्वामित्व की प्ररूपणा २७२, अपर्याप्त-तिर्यंच में प्रकृतियों के बन्ध की प्ररूपणा २७३, पर्याप्त-मनुष्यों के बन्धस्वामित्व की प्ररूपणा २७५, देवगति में बन्धस्वामित्व की प्ररूपणा २७५, देवगति में सामान्य से तथा कल्पद्विक में बन्ध-प्ररूपणा २७६, भवनपति, ज्योतिष्क और व्यन्तर देवों में बन्धप्ररूपणा २७६, सनत्कुमार कल्प से पाँच अनुत्तरविमानवासी देवों के बन्धस्वामित्व की प्ररूपणा २७७, सनत्कुमार से सहस्रार देवलोक तक की बन्धस्वामित्व-प्ररूपणा २७७, आनत से नव-ग्रैवेयक और पंच-अनुत्तरवासी देवों की बन्धस्वामित्व-प्ररूपणा २७८, (२, ३) इन्द्रियमार्गणा और कायमार्गणा में बन्धस्वामित्व-प्ररूपणा २७८. इन्द्रिय का स्वरूप और प्रकार २७८, काय का स्वरूप और प्रकार २७९, इन्द्रियमार्गणा और कार्यमार्गणा द्वारा बन्धस्वामित्व-कथन २७९, एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रियत्रिक एवं तीन कायों में बन्धस्वामित्व-प्ररूपणा २७९, पंचेन्द्रिय जाति और त्रसकाय में बन्धस्वामित्व-प्ररूपणा २८०. (४) योगमार्गणा द्वारा बन्धस्वामित्व-प्ररूपणा २८१, योग : स्वरूप, प्रकार और भेद २८१, काययोग के शेष भेदों का बन्धस्वामित्व २८२, कार्मण काययोग में बन्धस्वामित्व-प्ररूपणा २८३, आहारकद्विक में बन्धस्वामित्व-प्ररूपणा २८४, वैक्रिय काययोग में बन्धस्वामित्व-प्ररूपणा २८४, वैक्रियमिश्र काययोग में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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