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________________ * ३३२ * कर्मविज्ञान: परिशिष्ट * (८) चौदह जीवस्थानों में संसारी जीवों का वर्गीकरण पृष्ठ १५१ से १७१ तक जीवों की अनन्त विभिन्नताओं का चौदह भागों में वर्गीकरण १५१, जीवस्थान में जीव से सम्बन्धित कुछ प्रश्न और उत्तर १५२, जीव का लक्षण विभिन्न दृष्टियों से १५५, सभी जीवों में भावप्राण : संसारी जीवों में भावप्राणयुक्त द्रव्यप्राण १५७, जीव की व्याख्या : निश्चयनय सापेक्ष १५७, संसारी जीव : शुद्ध और अशुद्ध कैसे ? १५७, कर्मयुक्त होने से संसारी जीवों की अपेक्षा से जीवस्थान - प्ररूपणा १५८, जीवस्थान का स्वरूप १५८, जीवस्थान का अन्य स्वरूप १५८, जीवसमास का स्वरूप १५९, चौदह जीवस्थान और सबमें जीवत्व-धर्म का सदभाव १५९, संसारी जीवों के संक्षेप में पाँच प्रकार १६०, इन्द्रियाँ और उनका स्वरूप १६०, द्विविध इन्द्रियों के पाँच-पाँच भेद: स्वरूप और कार्य १६०, द्रव्येन्द्रिय के दो भेद : स्वरूप और कार्य १६१, एकेन्द्रिय जीवों के सूक्ष्म और बादरपर्याय का स्वरूप १६२, सूक्ष्मशरीर की विशेषता १६३, बादरकाय का स्वरूप और विश्लेषण १६३, एकेन्द्रिय जीवों के सूक्ष्म और बादर भेद मानने के पीछे कारण १६३, षट्कायिक या पंचेन्द्रिय जीवों की पहचान १६४, चौदह प्रकार के जीवस्थानों में संज्ञी - असंज्ञी विचार १६५, संज्ञी-असंज्ञी का प्रचलित अर्थ १६५ आगमों द्वारा प्ररूपित संज्ञा के प्रकार १६५, चैतन्य के उत्तरोत्तर विकास की दृष्टि से चार कोटि की संज्ञाएँ १६६, चौदह प्रकार के जीवस्थानों में पर्याप्ति-अपर्याप्त-मीमांसा १६८, लब्धि और करण से अपर्याप्त और पर्याप्त के लक्षण १६९-१७१। (९) जीवस्थानों में गुणस्थान आदि की प्ररूपणा पृष्ठ १७२ से १९६ तक चतुर्दश जीवस्थानों में गुणस्थान आदि की प्ररूपणा १७२, आठ प्ररूपणीय विषयों का स्वरूप १७३, जीवस्थानों को लेकर प्ररूपणायोग्य पूर्वोक्त विषयों का क्रम १७४, (१) जीवस्थानों में गुणस्थानों की प्ररूपणा १७४, पाँच जीवस्थानों में मिथ्यात्व तथा सास्वादन गुणस्थान: क्यों और कैसे ? १७५, संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त में पहला, दूसरा और चौथा गुणस्थान: क्यों और कैसे ? १७५, पर्याप्त संज्ञी-पंचेन्द्रिय में सभी गुणस्थान: क्यों और कैसे ? १७६ (२) जीवस्थानों में उपयोग की प्ररूपणा १७७, उपयाग को सामान्य-विशेषरूप मानने का कारण १७७, पर्याप्त संज्ञी - पंचेन्द्रिय जीवों में बारह ही उपयोग क्यों ? १७८, केवली भगवन्तों के उपयोग सहभावी हैं या क्रमभावी? : तीन पक्ष १७८ पर्याप्त चतुरिन्द्रिय तथा असंज्ञी -पंचेन्द्रिय में चार उपयोग : क्यों और कैसे ? १८०, सैद्धान्तिकों का कार्मग्रन्थिकों से इस विषय में मतभेद १८१, संज्ञी-पंचेन्द्रिय अपर्याप्त में आठ उपयोग ही क्यों ? १८२, (३) जीवस्थानों में पन्द्रह योगों की प्ररूपणा १८२, पन्द्रह प्रकार के योगों का स्वरूप १८३. चौदह जीवस्थानों में योगत्रय-प्ररूपणा १८४, चौदह जीवस्थानों में पन्द्रह योगों की प्ररूपणा १८४, कार्मग्रन्थिकों और सैद्धान्तिकों में मतविभिन्नता का अभिप्राय १८५, पर्याप्त संज्ञी-पंचेन्द्रिय जीवों में पन्द्रह ही योग : क्यों और कैसे ? १८५, (४) चौदह जीवस्थानों में छह लेश्याओं की प्ररूपणा १८७, (५) चौदह जीवस्थानों में अष्टविध कर्मबन्ध, उदीरणा, उदय - सत्ता की प्ररूपणा १८८, (६, ७, ८) चौदह जीवस्थानों में उदीरणा, सत्ता और उदय की प्ररूपणा १८९, तेरह जीवस्थानों में सत्ता और उदय आठ ही कर्मों का सम्भव १९०, कर्मों का बन्धस्थान : स्थिति और गुणस्थान- प्ररूपणा १९५, गुणस्थानों की अपेक्षा संज्ञी-पंचेन्द्रिय पर्याप्त के कर्मबन्ध का विचार १९२, कर्मों का सत्तास्थान १९२, कर्मों का उदयस्थान १९३, कर्मों के उदीरणास्थान पाँच: क्यों और कैसे ? १९४, अष्टविषयों की प्ररूपणा का उद्देश्य १९५, चौदह जीवस्थानों में गुणस्थान आदि आठ द्वारों तथा अल्प- बहुत्व का यंत्र १९६ । (१०) मार्गणास्थान द्वारा संसारी जीवों का सर्वेक्षण - १ पृष्ठ १९७ से २२५ तक मार्गणा : एक सर्वेक्षण १९७, संमारी जीवों के आध्यात्मिक सर्वेक्षण हेतु : मार्गणास्थान १९७, लौकिक की तरह लोकोत्तर पदार्थों का चतुरंगी मार्गणाकथन १९८. मार्गणा और मार्गणास्थान का अर्थ. फलितार्थ और परिभाषा १९९, मार्गणा का उद्देश्य और मार्गणास्थानों का प्रतिफल १९९, मार्गणास्थान और गुणस्थान में अन्तर २००, मार्गणास्थानों के चौदह भेद २०१. चौदह मार्गणाओं के लक्षण २०१, (१) गतिमार्गणा के भेद और उनका स्वरूप २०६, (२) इन्द्रियमार्गणा के भेद और स्वरूप २०७ (३) कायमार्गणा के भेद और स्वरूप २०७, (४) योगमार्गणा के भेद और उनका स्वरूप २०८, (५) वेदमार्गणा के भेद और उनका स्वरूप २०८, (६) कषायमार्गणा के भेद और उनका स्वरूप २०९, (७) ज्ञानमार्गणा के भेद और उनका स्वरूप २१०, (८) संयममार्गणा के भेद और उनका स्वरूप २१२, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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