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* विषय-सूची : पंचम भाग * ३३१ *
१०१. दौर्भाग्य को सौभाग्य में बदलने हेतु बन्ध-अवस्था की प्रेरणा १0१, (२) कर्मबन्ध की द्वितीय अवस्था : सत्ता या सत्त्व १०२, सत्ता का कार्य १0२, सत्ता में रहे हुए कर्मों का परिवर्तन शक्य है १०३, सत्तारूप कर्म फलाभिमुख होने से पूर्व तक बदले जा सकते हैं १०४, सत्ता में पड़ा हुआ कर्म भोगा नहीं जाता १०५. अबाधाकाल : क्या, कैसे और कितना-कितना? १०६, (३) उदय-अवस्था : स्वरूप, कार्य
और प्रेरणा १०७, बन्ध, सत्ता और उदय : तीनों में घनिष्ठ सम्बन्ध १०८, उदय का फलितार्थ और लक्षण १०८, विपाकोदय और प्रदेशोदय तथा उनका फलितार्थ १०९, सहेतुक और निर्हेतुक उदय : एक चिन्तन १०९, स्वतः उदय में आने वाले सहेतुक उदय १०९. परतः उदय में आने वाले विपाकोदय ११०, प्रदेशकर्म अवश्य भोगे जाते हैं, अनुभागकर्म कुछ भोगे जाते हैं, कुछ नहीं ११0, किस कर्म के उदय से किन-किन फलों का अनुभाव होता है? १११, कर्मफल की उदयमान अवस्था में साधक क्या करे? १११, उदित कर्म निमित्त प्रस्तुत करता है, बलात् नियोजित नहीं करता ११२, निर्बल आत्मा ही कर्म का आधिपत्य स्वीकारते हैं, बलवान् नहीं ११३, ज्ञानी और अज्ञानी दोनों के परिणामों में अन्तर ११३, उदय की प्रक्रिया के विषय में कर्मविज्ञान की प्ररूपणा ११४, बन्ध और उदय की प्रक्रिया ११५, पुण्य या पाप के उदय में भी परिवर्तन सम्भव ११६, बन्ध और उदय की समानता-असमानता कहाँ-कहाँ ? ११६-११७। (६) कर्मबन्ध की विविध परिवर्तनीय अवस्थाएँ-२ .
पृष्ठ ११८ से १४0 तक ___ सम्यक्-पुरुषार्थ से कर्मबन्ध में परिवर्तन सम्भव है ११८, पुरुषार्थ कैसा और कितना हो? ११९, (४) उदीरणाकरण : स्वरूप, हेतु और पुरुषार्थवाद का प्रेरक १२१, उदय और उदीरणा में अन्तर और उदीरणा का स्वरूप १२१, उदीरणा पुरुषार्थ की उद्योतिनी १२१, उदीरणा के योग्य कर्मपुद्गल कौन-से हैं, कौन-से नहीं ? १२२, उदीरणा पुरुषार्थवाद की प्रेरणादायिनी है १२२, उदीरणा : कब और कैसे? १२३, उदीरणा का हेतु और रहस्य १२३, प्रत्येक प्राणी के सहज रूप में उदय-उदीरणा प्रायः होती रहती है १२४, विशेष दुष्कर्मों की उदीरणा के लिए विशेष सत्पुरुषार्थ आवश्यक १२४. ईसाई धर्म में और मनोविज्ञान में भी उदीरणा का रूप १२५, उदीरणा में विशेष सावधानी आवश्यक १२५, (५-६) उद्वर्तनाकरण और अपवर्तनाकरण : स्वरूप और कार्य १२५, उद्वर्तना और अपवर्तना का रहस्य १२६, अपकर्षण और उत्कर्षण का कार्य १२७, अपवर्तनाकरण का चमत्कार : पापात्मा से पवित्रात्मा १२८, अपकर्षण या उद्वर्तनाकरण भी दो प्रकार का १२८, उद्वर्तना में अशुभ परिणामों की प्रबलता होती है १२९, अपवर्तना
और उद्वर्तना के नियम और कार्य १२९, (७) संक्रमणकरण : स्वरूप, प्रकार और कर्म १२९, व्यावहारिक क्षेत्र में संक्रमणवत् कर्मसंक्रमण १३०, चार प्रकृतियों का कर्म-संक्रमण १३०, वनस्पति-विज्ञान एवं चिकित्सा-विज्ञान के क्षेत्र में भी संक्रमण-प्रयोग १३२, कर्मविज्ञानवत् मनोविज्ञान भी सजातीय प्रकृतियों में संक्रमण मानता है १३३, उदात्तीकरण की प्रक्रिया और संक्रमण-प्रक्रिया १३३, रूपान्तरण भी संक्रमणवत् दो प्रकार का १३३, संक्रमण-प्रयोग से विकार का संस्कार में परिवर्तन १३४, मार्गान्तरीकरण भी संक्रमण के तुल्य है : कुछ उपयोगी तथ्य १३४, संक्रमणकरण का सिद्धान्त प्रत्येक व्यक्ति के लिए आशास्पद और प्रेरक १३५, (८) उपशमना (उपशम) करण : स्वरूप और कार्य १३५, उपशमनकरण का भी बहुत बड़ा महत्त्व : क्यों और कैसे? १३६, (९) निधत्तिकरण : स्वरूप और कार्य १३७, (१०) निकाचनाकरण (निकाचित अवस्था) : स्वरूप और कार्य १३८, कर्म बलवान् है या आत्मा? १३९-१४01 (७) बद्ध जीवों के विविध अवस्थासूचक स्थानत्रय .
पृष्ठ १४१ से १५० तक .. अनन्तानन्त जीवों की कर्म-सम्बन्धित विविध अवस्थाएँ १४१, बाह्याभ्यन्तर अवस्थाओं का तीन स्थानों में वर्गीकरण १४२, सर्वप्रथम जीवस्थान का ही निर्देश क्यों? १४२, समस्त संसारी जीवों के विविध मुख्य रूप १४३, जीवस्थान के अनन्तर मार्गणास्थान क्यों? १४४, मार्गणास्थान की विशेषता १४४, जीवस्थान, मार्गणास्थान और गुणस्थान के द्वारा होने वाला बोध १४५. अध्यात्मविद्या में जीवस्थान. मार्गणास्थान और गुणस्थान का स्थान १४६, जीवों के वाह्याभ्यन्तर जीवन की विभिन्नताएँ चौदह भागों में १४६, गाढ़तम मोहावस्था से पूर्ण मोक्षावस्था तक का विकास-क्रम १४७, मार्गणाग्थान के पश्चात् गुणस्थान का निर्देश इसलिए भी १४७, मार्गणास्थान और गुणस्थान के कार्य में अन्तर १४८, गुणस्थान में आत्मा की शुद्धि-अशुद्धि के उत्कर्ष-अपकर्ष की सूचक अवस्थाएँ १४९, संसारी जीव के मुख्य तीन रूप, तीन स्थान १५01
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