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* ३३० * कर्मविज्ञान : परिशिष्ट *
प्रकृतियाँ : स्वरूप और प्रकार ४९. अध्रुवोदयी प्रकृतियाँ : स्वरूप और प्रकार ५१. ये पिचानवे प्रकृतियाँ अध्रुवोदयी : क्यों और कैसे? ५१, ध्रुवसत्ताका और अध्रुवसत्ताका प्रकृतियाँ ५३, ध्रुवसत्ताका एक सौ तीस प्रकृतियाँ ५४, अध्रुवसत्ताका अट्ठाईस प्रकृतियाँ ५५, बन्ध और उदय से सत्ता में अधिक प्रकृतियाँ क्यों? ५५, ध्रुवबन्धिनी ध्रुवोदया से अध्रुवबन्धिनी अध्रुवोदया की संख्या कम, परन्तु सत्तायोग्य प्रकृतियों में इसके विपरीत ५६, ये एक सौ तीस प्रकृतियाँ ध्रुवसत्ताका क्यों ? ५६, अनन्तानुबन्धी कषाय-प्रकृतियाँ ध्रुवसत्ताका क्यों, अध्रुवसत्ताका क्यों नहीं? ५७, अट्ठाईस प्रकृतियाँ अध्रुवसत्तारूप क्यों? ५७, गुणस्थानों में कतिपय प्रकृतियों की ध्रुव-अध्रुवसत्ता-प्ररूपणा ५८, बन्ध के बिना सत्ता और उदय : क्यों और कैसे? : एक अनुचिन्तन ५८, मिश्र-प्रकृति और अनन्तानुबन्धी कषाय की सत्ता का विचार ५९-६०। (३) परावर्तमाना और अपरावर्तमाना प्रकृतियाँ
- पृष्ठ ६१ से ६५ तक घुड़दौड़ के दो प्रकार के घोड़ों की तरह कर्मों की दो प्रकार की प्रकृतियाँ ६१, परावर्तमाना-अपरावर्तमाना प्रकृतियों का स्वरूप ६१, परावर्तमाना प्रकृतियों की संख्या ६२, अपरावर्तमाना प्रकृतियों की संख्या ६३. एक प्रश्न : समुचित समाधान ६३, इन दोनों प्रकार की प्रकृतियों को जानने से लाभ ६३. कर्मप्रकृतियों के ध्रुवबन्धी आदि भेदों का कोष्टक ६५। (४) विपाक पर आधारित चार कर्मप्रकृतियाँ
पृष्ठ ६६ से ८१ तक कर्मों की प्रकृतियाँ : विपाक के आधार पर ६६, विपाक का स्वरूप और परिणाम ६६, अष्टविध कर्म के विभिन्न विपाकों का दिग्दर्शन ६७, गति आदि के निमित्त से कर्मफल का तीव्र-मन्द विपाक ६९, विभिन्न कर्मों का विपाक किन-किन कारणों से हो जाता है ? ७०, उपादान के साथ निमित्त का भी विपाक में महत्त्वपूर्ण स्थान ७१, विपाक में त्रिविध निमित्त : स्वतः, परतः और उभयतः ७१. परिस्थिति, वातावरण, विशिष्ट व्यक्ति आदि से प्रभावित हो जाता है ७२, जीव अष्टविध कर्मों के विपाक के योग्य कब और कैसे बनता है? ७३, विपाक के चार हेतु : क्षेत्र, जीव, भव और पुद्गल ७३, विपाक के दो भेदों पर आधारित : हेतुविपाकी और रसविपाकी प्रकृतियाँ ७४. यहाँ हेतुविपाकी कर्मप्रकृतियों की विवक्षा अभीष्ट ७४, क्षेत्रविपाकी कर्मप्रकृतियाँ : स्वरूप और कार्य ७५, जीवविपाकी कर्मप्रकृतियाँ : स्वरूप और कार्य ७५, जीवविपाकिनी कर्मप्रकृतियाँ अठहत्तर प्रकार की ७६, भवविपाकिनी कर्मप्रकृतियाँ : स्वरूप और प्रकार ७६, गतिनामकर्म की प्रकृतियाँ भवविपाकिनी नहीं हैं ७७, क्षेत्रविपाकी ही क्यों, जीवविपाकी क्यों नहीं? ७७, पुद्गलविपाकी कर्मप्रकृतियाँ : स्वरूप और प्रकार ७८, कर्मग्रन्थानुसार पुद्गलविपाकी छत्तीस कर्मप्रकृतियाँ ७८, इन्हें पुद्गलविपाकी मानें या जीवविपाकी ? ७९, कर्मप्रकृतियों के क्षेत्रविपाकी आदि भेदों का कोष्टक ८०-८१। (५) कर्मबन्ध की विविध परिवर्तनीय अवस्थाएँ-१
पृष्ठ ८२ से ११७ तक सूर्य-प्रकाश की प्रतिवद्ध अवस्थाओं की तरह आत्मप्रकाश-प्रतिबद्ध अवस्थाएँ ८२, कर्मबन्ध की परिवर्तनीयता के सम्बन्ध में भ्रान्ति ८३, दूसरी भ्रान्ति : अनादिकालीन कर्मचक्र-परम्परा से छूटना भी कटिन ८३, प्रथम शंका का समाधान ८४, द्वितीय शंका का समाधान ८६, (१) प्रथम अवस्था-वन्ध : स्वरूप, महत्त्व और प्राथमिकता ८८, बन्ध की अवस्था के विषय में महत्त्वपूर्ण तथ्य ८८. योगास्रव कर्तव्य : प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध ९०, प्रकृतिबन्ध में भी न्यूनाधिकता ९०, कषायभाव-निर्भर : स्थितिवन्ध और अनुभागबन्ध ९०, प्रकृतिवन्ध और अनुभागबन्ध में अन्तर ९१, कषायसहित होने पर ही कर्म में फलदान-शक्ति का प्रादुर्भाव ९१, पूर्वोक्त बन्धद्वय से जनित विविध अवस्थाएँ ९१, कपायभाव कहाँ तक और उसके बाद की अवस्थाएँ कौन-सी हैं ? ९२. आयुष्यबन्ध : जीवनभर के शुभाशुभ भावों के आधार पर ९२, कषाय के बहुत्व-अल्पत्व पर स्थिति और अनुभागबन्ध की वृद्धि हानि १२. योगों की अतिचंचलता और कषाय की अल्पता का परिणाम ९२. कषाय-बाहुल्य तथा याग के अल्पत्व का परिणाम ९३. योगों की अल्पता, किन्तु कषाय की बहुलता का निदर्शन ९३, योगों का संकोच, किन्तु कषायों की तीव्रता : कर्मबन्ध गाढ़ ९५, आत्मा में कषायभाव की शक्ति कर्मपदगलों में संक्रान्त होती है ९६. मुख्य वन्धहेतूक कषायों से मुक्ति ही वास्तविक मुक्ति ९०. बन्ध के भेद : द्रव्यबन्ध और भावबन्ध ९८, कर्मशास्त्र में द्रव्यबन्ध की अपेक्षा कथन ९८, कर्मसिद्धान्त की पद्धति : द्रव्यकर्म-आश्रयी प्ररूपणा ९८, साम्परायिक बन्ध के दो प्रकार
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