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* ३३४ * कर्मविज्ञान : परिशिष्ट *
वन्धस्वामित्व-प्ररूपणा २८५, (५) वेदत्रय में बन्धस्वामित्व-प्ररूपणा २८६, (६) सोलह कषायों में बन्धस्वामित्व की प्ररूपणा २८६, (७, ८) ज्ञानमार्गणा और दर्शनमार्गणा द्वारा बन्धस्वामित्व-प्ररूपणा २८७, . तीन अज्ञानों में बन्धस्वामित्व-निरूपण २८७, पाँच ज्ञान और चार दर्शनों में बन्धस्वामित्व की प्ररूपणा २८८, (९) पंचविध संयम में बन्धस्वामित्व-प्ररूपणा २८९, (१०) सम्यक्त्वमार्गणा में बन्धस्वामित्व-प्ररूपणा २८९, (११) आहारकमार्गणा में बन्धस्वामित्व-प्ररूपणा २९१, (१२, १३) भव्यत्वमार्गणा तथा संज्ञित्वमार्गणा में बन्धस्वामित्व-प्ररूपणा २९२, (१४) लेश्याओं में बन्धस्वामित्व की प्रस्त्रपणा २९२, कृष्णादि तीन लेश्याओं में बन्धस्वामित्व की प्ररूपणा २९३, देवों और नारकों में द्रव्यलेश्याएँ अवस्थित, किन्तु भावलेश्याओं में परिवर्तन २९३, तेजोलेश्या से शुक्ललेश्या तक की बन्धस्वामित्व-प्ररूपणा २९४-२९५। (१३) मोह से मोक्ष तक की यात्रा की चौदह मंजिलें
पृष्ठ २९६ से ३३९ तक वस्तुतः गुणस्थान मोह के तापमान की डिग्रियों को बताने वाला थर्मामीटर है २९६, चौदह गुणस्थानों का स्वरूप, स्वभाव, कार्य और गुण-प्राप्ति २९७, (१) मिथ्यादृष्टि गुणस्थान : स्वरूप, कार्य और अधिकारी २९७, मिथ्यात्व गुणस्थान के अधिकारी कौन-कौन ? २९८, मिथ्यात्व गुणस्थान को गुणस्थान क्यों कहाँ गया? २९८, मिथ्यात्व गुणस्थान को गुणस्थान क्यों कहा गया ? ३00, अधःस्थिति से ऊपर उठने की शक्यता होने से गुणस्थान कहा गया ३०१, प्रथम गुणस्थानवी जीवों की आध्यात्मिक स्थिति एक-सी नहीं होती ३०१, प्रथम गुणस्थान के काल की दृष्टि से तीन रूप ३०१, (२) सास्वादन गुणस्थान : लक्षण, महत्त्व और अधिकारी ३०२, (३) सम्यग्-मिथ्यादृष्टि (मिश्र) गुणस्थान ३०३, मिश्र गुणस्थान की विशेषताएँ ३०४, (४) अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान : स्वरूप, कार्य और अधिकारी ३०६, इसे अविरत क्यों कहा गया? ३०६, सम्यग्दृष्टि प्राप्त हो जाने से उत्क्रान्ति की ओर मुख ३०७, चतुर्थ गुणस्थान की कुछ विशेषताएँ ३०७, मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि में अन्तर ३०८, अविरत सम्यग्दर्शन की उपलब्धि और उसका हेतु ३०९, सम्यग्दर्शन के विविध अपेक्षाओं से अनेक भेद ३०९, (५) देशविरत गुणस्थान : स्वरूप, कार्य और विकास ३११, (६) प्रमत्त-संयत गुणस्थान : स्वरूप, कारण और अधिकारी ३१२, छठे गुणस्थान से आगे उत्तरोत्तर विशुद्धि ३१४, छठे गुणस्थान की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति एवं स्वामित्व ३१४. प्रमत्त-संयत गुणस्थानवर्ती ३१५, (७) अप्रमत्त-संयत गुणस्थान : स्वरूप, कार्य और अधिकारी ३१५, छठे से सातवें और सातवें से छटे गुणस्थान में उतार-चढ़ाव : क्यों और कैसे? ३१६, पूर्व गुणस्थानापेक्ष या सप्तम गुणस्थान में अधिकाधिक विशुद्धि ३१६, सप्तम गुणस्थान के दो प्रकार ३१७, अप्रमत्त-संयत गुणस्थान से आरोह और अवरोह की स्थिति में ३१७, वर्तमानकाल में सातवें से ऊपर में गुणस्थानों की पात्रता नहीं ३१८, (८) अपूर्वकरण : निवृत्तिबादर गुणस्थान : एक चिन्तन ३१८, निवृत्तिबादर : अध्यवसायों के असंख्यात भेद होने से ३१९, स्थितिघात आदि पाँचों अपूर्वो का स्वरूप ३२१, स्थितिघातादि पाँचों का विधान अपूर्व होने से अपूर्वकरण नाम ३२२, इस गुणस्थान में उपशमन या क्षपण की तैयारी ३२३, (९) अनिवृत्तिबादर-सम्पराय गुणस्थान (अनिवृत्तिकरण-गुणस्थान) ३२३, आठवें और नौवें गुणस्थान में अन्तर ३२५, नवम् गुणस्थान के अधिकारी ३२६, (१०) सूक्ष्म-सम्पराय गुणस्थान : स्वरूप, कार्य और अधिकारी ३२६, (११) उपशान्तमोह गुणस्थान : स्वरूप, कार्य और अधिकारी ३२८, उपशान्तकषाय, वीतराग और छद्मस्थ गुणस्थान कैसे सार्थक ? ३२८, इस गुणस्थान की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति ३३0, (१२) क्षीणमोह गुणस्थान : स्वरूप, कार्य और अधिकारी ३३०, उपशान्तमोह एवं क्षीणमोह गुणस्थान में अन्तर ३३१, विशेषणों की सार्थकता ३३१, (१३) सयोगीकेवली गुणस्थान : स्वरूप, कार्य और अधिकारी ३३२, (१४) अयोगीकेवली गुणस्थान : स्वरूप, कार्य और अधिकारी ३३५, गुणस्थानक्रम : गाढ़ कर्मबन्ध से पूर्ण मोक्ष तक ३३७, आत्मा के विकास-क्रम की सात क्रमिक अवस्थाएँ ३३७, गाढ़ लर्मबन्ध से घातिकर्म-मुक्ति तक संवर और निर्जरा से विकास ३३८, चतुर्थ गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक उत्तरोत्तर असंख्यगुणी निर्जरा ३३८, उत्तरोत्तर निर्जरा करने में कम समय लगता है ३३८, चौदह गुणस्थानों में शाश्वत-अशाश्वत कौन? ३३९। (१४) गाढ़ बन्धन से पूर्ण मुक्ति तक के चौदह सोपान
पृष्ठ ३४० से ३७९ तक बन्ध से मुक्ति तक पहुँचने के लिए पर्वतारोहणवत् गुणस्थानारोहण आवश्यक ३४0, गुणस्थान क्रमारोहण कठिन है, पर असम्भव नहीं ३४१, गुणस्थान क्या है, क्या नहीं? ३४१, कर्म से सम्बद्ध होने से गुणस्थान क्रम को जानना आवश्यक ३४१, गुणस्थान से अनन्त संसारी जीवों की बन्धादि योग्यता नापी जा
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