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________________ * ३१० * कर्मविज्ञान : परिशिष्ट * आत्मा को नहीं ७४५, तितिक्षा के दृढ़ अभ्यास से शरीर को कष्टों की अनुभूति से बचाया जा सकता है ७४५, काय-संवर की साधना में परिपक्वता के लिए कायगुप्ति ७४६, काय-संवर में कायगुप्ति के द्वारा स्थूलशरीर का द्वार बंद करना अभीष्ट ७४६, स्थूलशरीर का देहाध्यास कैसे समाप्त हो ? ७४७-७४८। (१०) वचन-संवर की महावीथी| पृष्ठ ७४९ से ७६९ वाणी का प्रयोग : क्यों और किसलिए? ७४९, वाणी और उसके अन्य समानार्थक लाभ ७४९, वाणी की महिमा और गरिमा ७५०, संसार के समस्त व्यवहारों का मूलाधार : वाणी ७५१, वाणी केवल शब्दोच्चारण नहीं, विभिन्न प्रेरणाओं से परिपूर्ण ७५२, वाणी की सर्वतोमुखी प्रभावक्षमता ७५३, वाणी की आध्यात्मिक शक्ति से दिव्यगुणद्रोही तत्त्ववेध ७५३, वाणी की शक्ति और उपलब्धि का महत्त्व ७५४, उपासनारूप दिव्यवाणी : क्या और कैसी? ७५४, वर्णविन्यास की कुशलता-अकुशलता पर शुभाशुभ परिणाम ७५४, शब्द-शक्ति का चमत्कार : अक्षरयोजक की कुशलता पर निर्भर ७५५, वर्णों के शुभाशुभत्व के आधार पर प्रश्नों के उत्तर ७५५, उपयोग के आध्यात्मिक प्रभाव ७५५, मंत्र-जप द्वारा शब्द-शक्ति के चमत्कार ७५६, टाइपराइटर की तरह क्रमबद्ध मंत्रोच्चारण भी सूक्ष्म चक्रों को जगा देता है ७५७, क्रमबद्ध मंत्र-जप से अलौकिक शक्तियों के जाग्रत होने का चमत्कार ७५७, शब्द-शक्ति की व्यापकता ७५८, मंत्रों के चमत्कार ७५८, सूक्ष्म ध्वनि से आश्चर्यजनक कार्य ७५८, शरीररूपी वाद्ययंत्र का संगीत : नाद ब्रह्म का आनन्द ७५९, सप्त स्वर से शरीर में लगे सूक्ष्म शक्ति-स्रोतों का जागरण ७५९, शब्द की गति धीमी. दृश्य के बाद श्रव्य की. पहुँच ७५९, इलेक्ट्रो-मैग्नेटिक तंरगों का चमत्कार ७६०, इलेक्ट्रो-मैग्नेटिक तरंगों की शक्ति से चिकित्सा-क्षेत्र में चमत्कार ७६०, जपक्रिया के बाद सुपरसौनिक तरंगों का उत्पादन ७६०, शब्दवेधी बाण-प्रयोग की तरह शब्दवेधा मंत्र-प्रयोग प्रयोक्ता के पास वापस लौटते हैं ७६१, वाक्-संवर की आवश्यकता : क्यों और किसलिए? ७६१, शोर-प्रदूषण का तन-मन-जीवन पर दुष्प्रभाव ७६१, कानों से श्रवण-योग्य ध्वनि कितनी डेसीबेल ? ७६२, वाक्-संवर की दिशा में जाने के लिए कुछ संयमसूत्र ७६२, वाणी के प्रयोग के दो प्रमुख कारण ७६४, सूक्ष्मतम उच्चारण से वाक्-संवरसिद्धि ७६५, न बोलने से अनेक लाभ ७६५, अन्तर्जल्प और बहिर्जल्प का निरोध ही वाक्-संवर ७६६, वाक्-गुप्ति से निर्विकारिता ७६८-७६९। (११) इन्द्रिय-संवर का राजमार्ग पृष्ठ ७७0 से ८०४ तक इन्द्रियों का व्युत्पत्त्यर्थ, स्वरूप और कार्यक्षमता ७७०, प्रकट रूप में ज्ञान कराने के कारण इन्द्रियाँ अक्ष तथा प्रत्यक्ष कहलाती हैं ७७१, इन्द्रियों द्वारा होने वाला ज्ञान : सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष ७७२. इन्द्रियों की संख्या और सांसारिक प्राणियों की इन्द्रियों में तारतम्य ७७२, द्रव्येन्द्रिय के दो उपविभाग : निवृत्ति और उपकरण ७७३, भावेन्द्रिय का स्वरूप और प्रकार ७७३, पूर्व-पूर्व इन्द्रिय प्राप्त होने पर उत्तर-उत्तर इन्द्रिय की प्राप्ति ७७४, पाँचों इन्द्रियों के पृथक्-पृथक् कुल मिलाकर तेईस विषय ७७४, पंचेन्द्रियों से विपयों का ग्रहण, बोध, सेवन तथा आत्मा को आकर्षणकरण ७७५, इन्द्रियाँ सांसारिक पदार्थों और विषयों से आत्मा को जोड़ती हैं ७७५, इन्द्रियाँ विषयों के प्रवेश के लिए द्वार हैं, झरोखे हैं, खिड़कियाँ हैं ७७६, इन्द्रियों की क्षमता बढ़ाने से अनेक प्रकार के लाभ ७७६, इन्द्रियों की क्षमता बढ़ाने के बदले इनका निरोध और संवर क्यों? ७७८, इन्द्रियों का सहज स्वभाव भी निरोध या निग्रह से ही बदला जा सकता है ७७८, जीव को विषयासक्ति में फँसाकर आस्रव और बन्ध में आदि निमित्त इन्द्रियाँ बनती हैं ७७८, विषय-सम्पर्क होने पर भी मन में राग-द्वेष न हो तो आस्रव बन्ध नहीं होता ७७९, कर्मास्रवों का मूल कारण इन्द्रियाँ नहीं, मन या आत्मा स्वयं है ७७९, इन्द्रियों को खुराफात की जड़ क्यों मानी गईं ७८०, कतिपय हठवादियों का इन्द्रियों के प्रति गलत दृष्टिकोण ७८0, इन्द्रियों को तोड़ने-फोड़ने आदि से इन्द्रिय-संवर नहीं ७८०, एक इन्द्रिय का कार्य दूसरी इन्द्रिय से हो सकता है ७८१, क्या इन्द्रियों को नष्ट या विकृत कर देने से इन्द्रिय-संवर या इन्द्रिय-निग्रह संभव है? ७८१, इन्द्रिय-विजय या इन्द्रिय-संवर का फलितार्थ ७८२, इन्द्रियों का विपयों में प्रवृत्त न होना शक्य नहीं, राग-द्वेष का त्याग करना हितावह ७८३, इन्द्रिय-संवर इसलिए भी आवश्यक है ७८४, इन्द्रियों का संवर या निरोध न करने के दुष्परिणाम ७८६, इन्द्रिय-विषयों में सुखाकांक्षायुक्त प्रवृत्ति अन्ततः दुःखकारी है : क्यों और कैसे? ७८६, इन्द्रिय-विषयों में असावधानी से पतन और दुःख ७८८, विषयों के चिन्तन से सर्वनाश तक का चक्र गीता द्वारा प्रस्तुत ७८८, इन्द्रियाँ असावधान मानव को कैसे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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