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* विषय-सूची : तृतीय भाग * ३०९ *
रवैया ६९६, सांसारिक अदूरदर्शी लोगों की आसवप्रियता ६९७, आसवमार्गी व्यक्ति अपनी कामवासना एवं कामना पर निरंकुश ६९७, आम्रवदृष्टि अदूरदर्शी समय-सम्पदा को भी व्यर्थ खो देते हैं ६९८, देवदुर्लभ मनुष्य-जन्म पाकर भी शुभाशुभ कर्मास्रवों के घेरे में घूमते हैं ६९८, दो प्रकार की नौका के रूपक द्वारा आस्रवप्रिय और संवरप्रिय की पहचान ६९९, किम्पाकफलसम कामभोगों के सेवन से जीवन का दुःखद अन्त ७00, भोगासक्त कर्मास्रवलिप्त, भोगविरक्त कर्मानवरहित ७०१, आस्रव की पगडंडियों को न खोजें, संवर का राजमार्ग पकड़ें ७०१, जीवन-वन का अभीष्ट राजमार्ग : संवर का शुद्ध पथ ७०२, लुभावने आसवमार्ग से बचो, संवरनिष्ठ बनो ७०२-७०३। (८) आम्नव की बाढ़ और संवर की बाँध
पृष्ठ ७०४ से ७२४ तक नदी में बाढ़ को रोकने के लिए वाँध का प्रयोग ७०४, सांसारिक आत्म-नदियों में आई हुई बाढ़ से भयंकर क्षति ७०४, कर्मानवों की बाढ़ से एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक प्रभावित ७०५, कर्मानवों और संवरों का कार्य एक-दूसरे से विरुद्ध ७०७, आस्रव सर्वथा हेय, संवर उपादेय : क्यों और किस प्रकार? ७०७, मिथ्यात्व-आम्रव की बाढ़ : सम्यक्त्व-संवर की बाँध ७०८, अविरति-आस्रव की बाढ़ : विरति (व्रत) संवर की बाँध ७०९. प्रमाद-आस्रव की बाढ़ : अप्रमाद-संवर की बाँध ७०९, कषाय-आम्नव की बाढ़ : अकषाय-संवर की बाँध ७०९. योग-आम्रव की बाढ़ : अयोग-संवर की बाँध ७१०, पंचविध संवरों की सिद्धि : कैसे और किस प्रकार है ? ७१0, सम्यक्त्व-संवर की सिद्धि ७११, विरति (व्रत) संवर की सिद्धि ७१२, अप्रमाद-संवर की सिद्धि ७१२, अकषाय-संवर की सिद्धि ७१२, अयोग-संवर की सिद्धि ७१२, अयोग-संवर प्राप्त होते ही पूर्ण संवरं की सिद्धि और पूर्ण मुक्ति ७१३, संवर की बाँध कैसे बाँधे, कौन-से साधन या साधना अपनाएँ? ७१४, संवर की दृढ़ साधना से ही मजबूत बाँध बन सकेगी ७१४, संवर की दृढ़ साधना ऐसे हो सकती है ७१४, नैतिक साहसी व्यक्ति दृढ़तम संवर-साधना कर सकते हैं, साहसहीन नहीं ७१५, संवर-साधकों को भगवान महावीर का आन्तरिक युद्ध का आह्वान ७१६, संवर के लिए भाव-विवेकरूपी शस्त्र ७१७, परिज्ञा के सूत्र ७१७, आम्रवों से संघर्ष करके निरस्त करने पर ही संवर की स्थापना ७१८, संवर में दृढ़तापूर्वक पराक्रम ही साधना को सुदृढ़ बनाने का उपाय ७१८, दुर्बलमना साधक जानते हए भी संवर-साधना में पराक्रम नहीं कर पाते ७१९. संवरों की भीड में आस्रव-चोर संवररूप में ७१९, आम्रवों की जड़ें भी काटनी होंगी ७२०-७२४। (९) काय-संवर का स्वरूप और मार्ग
पृष्ठ ७२५ से ७४८ तक काया के प्रति एकांगी और गलत दृष्टिकोण : काय-संवर नहीं ७२५, चार्वाकादि मत-समर्थक अतिभोगवादी दृष्टिकोण : काय-संवर से विपरीत ७२६, हीनताग्रस्त लोगों का काया के प्रति अति असमर्थतामूलक दृष्टिकोण ७२६, ऐसी असमर्थता एवं हीनता से ग्रस्त लोग शरीर से कुछ भी संवर, संयम नहीं कर पाते ७२८, शरीर के प्रति अध्यात्म-साधकों का काय-संवर मूलक स्पष्ट दृष्टिकोण ७२८, प्रवृत्ति-निवृत्तिकर्ता शरीर को मारना नहीं, शरीर से संवर धर्म पालना है ७३०, सर्वप्रथम शरीर का संवर-साधना की दृष्टि से अनुप्रेक्षण ७३०, शरीर एक : प्रेक्षण-अनुप्रेक्षण के दृष्टिकोण अनेक ७३१, काय-संवर की दृष्टि से ही यहाँ शरीर का अनुप्रेक्षण अपेक्षित ७३१, संवर-साधना की दृष्टि से काय-अनुप्रेक्षण : किस-किस आधार पर? ७३२, सभी क्रियाओं का मूल आधार : शरीर ७३२, काय-संवर-कायिक प्रवृत्ति-निरोध : क्यों और कैसे? ७३३ अशुचित्वानुप्रेक्षा से शरीर के प्रति विरक्ति ७३३, संवर-साधना से ममता आदि का व्युत्सर्ग ७३४, स्थूलशरीर में चंचलता क्यों होती है और वह कैसे दूर हो? ७३६. स्थूलशरीर की रक्षा : क्यों और किस प्रकार? ७३८, शरीर सभी शक्तियों का अधिष्ठान : पावर हाउस. उत्पादक यंत्र ७३८, काय-संवर-साधक महर्षियों की अर्हताएँ ७३९, शरीर : तितिक्षा, परीषह-सहन, कायोत्सर्ग आदि : काय-संवरोपयोगी साधना के लिए उपयोगी ७४0, शरीर को अनित्य और अशुचि जानकर इससे धर्माचरण में जरा भी प्रमाद न करो ७४१, (कर्म) शरीर को आत्मा से पृथक जानकर उसे कृश करे ७४२, भगवान महावीर की काय-संवर-साधना : काया को समाप्त करने के लिए नहीं, साधने के लिए थी ७४३, काय-निरपेक्ष कायोत्सर्ग भी काय-संवर की साधना के लिए ७४४,
काय-संवर की साधना के दौरान काया की विस्मृति : क्यों और कैसे ? ७४४, कष्ट शरीर को होता है, Jain Education International For Personal & Private Use Only
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