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________________ * ३०८ * कर्मविज्ञान : परिशिष्ट * असुरवर्ग का विकृत चिन्तन ६२३, पापासव-परायण पुण्य-सम्पदा से वंचित : क्यों और कैसे? ६५४. पुण्यानव-परायण देववर्ग का आत्मौपम्य मूलक चिन्तन ६५४, पुण्याम्नवी व्यक्तियों को पुण्यलाभ और परम्परा से सर्वकर्ममुक्ति की उपलब्धि ६५४, पुण्यशाली देववर्ग का सूझबूझभरा चिन्तन ६५४, पापकर्मास्रव शीघ्र प्रविष्ट होने का स्रोत : तात्कालिक क्षणिक प्रलोभन ६५५, पुण्यास्रव और पापासव में बहुत बड़ा अन्तर ६५६, पुण्य और पाप दोनों आम्रवों में से पुण्य का ही चुनाव करो ६५६, संसारयात्रा में पुण्य का आश्रय लेना और मोक्षयात्रा में दोनों का त्याग करना हितकर ६५६। (६) पुण्य : कब और कहाँ तक उपादेय एवं हेय ? पृष्ठ ६५७ से ६८७ तक महावत के महायात्री के समक्ष सुखद और दुःखद दृश्य ६५७, संसार:महारण्य के यात्री के समक्ष भी पुण्य और पाप के दृश्य ६५८, संसार-महारण्य के यात्री के समक्ष भी पुण्य-पथ और पाप-पथ ६५९, पारमार्थिक दृष्टि से पुण्य और पाप दोनों एक : क्यों और कैसे? ६५९, तत्त्वदृष्टि से पुण्य और पाप दोनों ही बन्धकारक संसार हेतु होने से समान ६६०, अज्ञानी मोहवश पुण्य को अच्छा और पाप को बुरा कहता है, ज्ञानी के लिए दोनों का संसर्ग निषिद्ध ६६२, पुण्य और पाप दोनों ही आकुलता एवं दुःख के कारण हैं ६६२, परमार्थदृष्टि से पाप की तरह पुण्य को भी हेय माना गया ६६३, ज्ञानी पाप की तरह पुण्य को भी हेय, अनादेय, अनादरणीय समझता है ६६४, परम्परा से पापबन्ध का कारणभूत पुण्य अच्छा नहीं ६६६, मिथ्यात्वयुक्त पुण्य तो अत्यन्त अनिष्टकारक हैं : क्यों और कैसे? ६६६, पुण्य का निषेध करने का प्रयोजन ६६८, शुभोपयोगरूप पुण्य कहाँ हेय, कहाँ उपादेय? : सम्यक् विवेचना ६६८, शुद्धोपयोग और शुभोपयोग की उपादेयता-हेयता पर विचार ६६९, शुभोपयोग (पुण्य) और अशुभोपयोग (पाप) में अन्तर ६७०, संसार-भ्रमण की दृष्टि से समान, किन्तु आचारदृष्टि से दोनों में दिन-रात का अन्तर ६७0, एकान्त निश्चयवादी शुभोपयोग को भी छोड़कर अशुभोपयोग के दूतों के हाथ में.६७१, शुद्धोपयोग सर्वथा उपादेय है, किन्तु किस क्रम से और किस भूमिका में ? ६७२, शुद्धोपयोग की अयोग्यता वाले शुभोपयोग को छोड़कर अशुभोपयोगरूप पापपंक में निमग्न ६७३, भूमिका देखकर ही शुभोपयोग का त्याग कराया जाता है ६७३, अशुभोपयोग से सर्वथा दूर रहने के लिए शुद्धोपयोग का लक्ष्य रखकर शुभोपयोग में स्थिर होना आवश्यक ६७४, पुण्य और पाप में भिन्नता : व्यवहारदृष्टि से ६७६, अतः पुण्य हेय ही नहीं, उपादेय भी है : क्यों और कैसे? ६७६, पुण्य स्वयमेव पापमल को नष्ट करने के साथ आत्मा से पृथक हो जाता है ६७७, पूर्वोपार्जित पुण्य सभी प्रकार की अनुकूल परिस्थितियों, संयोगों और शुभ भावों को उपस्थित करता है ६७८, अशुभ से सीधे शुद्ध की प्राप्ति नहीं, शुभ के त्याग से ही शुद्ध की प्राप्ति सम्भव ६७८, शुभ का त्याग होने पर पुण्य और इन्द्रियजनित सुख स्वयं दूर हो जायेंगे ६७८, पुण्य की दो उपलब्धियाँ : कर्ममुक्त सिद्ध-परमात्मा या अल्पकर्मा महर्द्धिकदेव ६७९, पुण्य से प्राप्त होने वाले महालाभ और उसके उपार्जन की प्रेरणा ६७९, सर्वमान्य पूज्य का माहास्य ६८०, पुण्यफल और पुण्यफलकथा की उपादेयता पर विचार ६८१, पुण्योपार्जन की प्रेरणा : क्यों और किसलिए? ६८३, सम्यग्दृष्टि का पुण्य ही अभीष्ट एवं उपादेय. मिथ्यादृष्टि का नहीं ६८४, सम्यग्दृष्टि का पुण्य पुण्यानुबंधी, मिथ्यादृष्टि का पापानुबन्धी ६८४. भोगमूलक पुण्य ही निषिद्ध है, योगमलक नहीं ६८५, पुण्य की हेयता-उपादेयता पर विहंगावलोकन ६८६, संसार-महारण्य के चार प्रकार के महायात्री ६८६, पुण्य : किसके लिए, कब और कब तक हेय या उपादेय है ? : निष्कर्ष ६८७। (७) आसवमार्ग संसारलक्ष्यी और संवरमार्ग मोक्षलक्ष्यी पृष्ठ ६८८ से ७०३ तक प्रेयमार्ग और श्रेयमार्ग ही आस्रव और संवर का मार्ग ६८८, अदूरदर्शिता और दूरदर्शिता का मार्ग अपनाने वाले ये प्राणी ! ६८९, दूरदर्शिता का पथ अपनाने वाले अपना वर्तमान और भविष्य उज्ज्वल बनाते हैं ६९०, संवरपथ अपनाने वाले नमिराजर्षि की दूरदर्शिता की परीक्षा और प्रशंसा ६९0, आस्रवपथिक स्वयं को बचाने और संवरपथिक स्वयं को मिटाने के लिए उद्यत ६९१, स्वयं को बचाने तथा स्वयं को मिटाने वाले ये बीज ! ६९२, आम्रवदृष्टि अदूरदर्शिता की, संवरदृष्टि दूरदर्शिता की दृष्टि ६९३, अदूरदर्शी आम्रवदृष्टि-परायण लोगों की रीति-नीति ६९३, अदूरदर्शी आम्नवदृष्टि और दूरदर्शी संवरदृष्टि व्यक्तियों द्वारा शक्तिव्यय में अन्तर ६९४, बचपन से ही संवर के प्रशिक्षण-संस्कार जीवन के अन्त तक स्थायी रहते हैं ६९५, संवर की दूरदर्शी दृष्टि की प्रेरणा ६९६, अदूरदृष्टि वाले आस्रवप्रिय व्यक्ति का Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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