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________________ * विषय-सूची : तृतीय भाग * ३११ * विषयों के घेरे में फँसाती हैं ? ७८९, इन्द्रिय-संवर के साधको ! सावधान !! ७९0, राग-द्वेषरहित होकर विषयोपभोग करने से इन्द्रियाँ वश में, चित्त भी स्वच्छ ७९०, इन्द्रिय-विषयों में आसक्त बहिरात्मा इन्द्रिय-संवर नहीं करता ७९१, द्रव्य-इन्द्रिय द्वारा हुआ बोध प्रामाणिक और यथार्थ नहीं : क्यों और कैसे? ७९१, दृष्ट पदार्थों के बोध के साथ द्रष्टा की दृष्टि और भावना जुड़ती है ७९२, श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा पदार्थ बोध में भी श्रोता की दृष्टि, भावना, संवेदना भी कारण ७९३, मनोयोगपूर्वक श्रवण के बिना श्रोत्रेन्द्रिय से लाभ नहीं उठाया जा सकता ७९३, इन्द्रियों से विशेष ज्ञान कर्मक्षयोपशम, संवेदन आदि पर निर्भर ७९३, इन्द्रिय-द्वारों पर बैठकर साधक पहरेदारी रखे ७९४, इन्द्रियों का वशीकरण : इन्द्रियों और मन के द्वार पर पहरा देने से ७९४, इन्द्रिय-द्वार बंद करने हेतु मन का भीतरी द्वार भी बंद करना जरूरी ७९५, मन और कषायों को जीत लेने पर इन्द्रियाँ स्वयं जीत ली जाती हैं ७९५, आजीवन इन्द्रिय-द्वार बंद करना शक्य नहीं ७९६. इन्द्रिय-संवर के लिए इन्द्रिय-कषायादि को कृश करना है, शरीर को नहीं ७९६, इन्द्रिय-संवर के लिए मन से भी कामभोगों की आकांक्षा न करे ७९६, प्राप्त विषयों के प्रति राग-द्वेष का त्याग करना कठिन ७९७, मन ही मन विषयभोग-प्राप्ति की आकांक्षा भी रागरूप है ७९७, विषयों से दूर रहने पर भी अन्तर में रस (वासना) रह जाता है ७९८, इन्द्रियों के साथ अवशिष्ट विषय-रस छूटेगा 'पर' के दर्शन से ७९८, ‘पर के दर्शन का अभिप्राय : जैन और वैदिक दृष्टि से ७५८, इन्द्रियों का दमन करने की अपेक्षा विषयों का उदात्तीकरण श्रेष्ठ है ८00, योगदर्शन-सम्मत प्रत्याहार से इन्द्रियों का विषयों से सम्बन्ध भी असम्बद्ध-सम हो जाता है ८००, इन्द्रियजय के लिए इस उपाय के अतिरक्ति अन्य श्रेष्ट उपाय नहीं ८0१, पूर्वोक्त रीति से प्रत्याहार करने पर पूर्ण रूप से इन्द्रियवश्यता ८0१, इन्द्रिय-विषयों के प्रति रस का मार्गान्तरीकरण करना प्राथमिक इन्द्रिय-संवर है ८०२-८०४। (१२) मनःसंवर का महत्त्व, लाभ और उद्देश्य पृष्ठ ८०५ से ८३१ तक ___कर्मावृत आत्मा के चेतना-नेत्र सम्यक्पदार्थ ज्ञान के लिए मन उपनेत्र है ८०५, आवृत चेतना के प्रगट होने का सशक्त माध्यम : मन ८०५, मन : सचेतन भी और अचेतन भी : कैसे? ८०६, जड़ और चेतन के मध्य योजक कड़ी : मन ८०६, मन : बन्ध और मोक्ष का कारण : कैसे? ८०७, उपनिषदों की दृष्टि में मन : बंध और मोक्ष का मूल कारण ८०७, जैनदृष्टि से मन : आस्रव और बंध का तथा संवर, निर्जरा और मोक्ष का कारण ८०७, समस्त शुभ-अशुभ और शुद्ध परिणामों का आद्य कारण : मन ८०७, मन का निवास-स्थान कहाँ-कहाँ और क्यों ? ८०८, वैदिक-परम्परानुसार मन का स्वरूप ८०८. मन : एक पृथक् भीतरी यंत्र ८०९, मन की शक्तियाँ अकल्पनीय ८०९, भौतिक वैज्ञानिकों द्वारा मन की शक्ति का नाप-तौल ८०९. मन की प्रचण्ड विद्यत-शक्ति का चमत्कार ८१०. मन की शक्ति से मानसिक कल्पना द्वारा किसी भी वस्तु का चित्र लेना ८११, मन की प्रचण्ड शक्ति से भौतिक की तरह आध्यात्मिक पदार्थ प्रभावित ८११, तत्त्वदर्शियों और वैज्ञानिकों द्वारा मन की प्रचण्ड शक्ति का स्वीकार ८१२. प्रचण्ड मनःशक्ति का सदुपयोग-दुरुपयोग उपयोगकर्ता पर निर्भर ८१२, जीवसत्ता और ब्रह्मसत्ता को मिलाने और पृथक् करने वाली सत्ता : मनःशक्ति ८१३, विकृत मनःस्थिति का शरीर पर दुष्प्रभाव ८१३, दूषित मनःस्थिति वाले लोग ही समाज में हत्या, युद्ध आदि के कारण ८१४, क्रूरतापूर्वक हत्या का बालक आरमण्ड के मन पर आजीवन प्रभाव ८१४, बन्ध और मोक्ष की दृष्टि से मन की अगाध शक्ति का परिचय ८१५, मन का योग होने पर ही सम्यग्दर्शन, यथाप्रवृत्तिकरण आदि ८१६, मन, बन्ध और मुक्ति का हेतु : आगमों की दृष्टि से ८१६, विभिन्न दर्शन-परम्पराओं की दृष्टि में मन, बन्धन और मुक्ति का कारण ८१६, मन कब बन्ध का, कब मुक्ति का वाहक? ८१७, मन की चंचलता के कारण ही इसका निरोध करना अभीष्ट ८१८, मन का निरोध क्यों आवश्यक है? ८१८. मनःसंवर के अभाव और सद्भाव में व्यक्ति की स्थिति ८१९, मन पर असंयम से हानियाँ ८२१. मनोनिग्रहरहित व्यक्ति मानसिक सुख-शान्ति से रहित ८२१, मनःसंवर से नाना उपलब्धियाँ ८२२, मनोनिग्रह का अनायास प्राप्त फल ८२२, मनोविजेता आत्म-शक्ति का धनी एवं :जगत्-विजेता ८२३, मनःसंवर या मनोनिरोध से प्राप्त होने वाली उपलब्धियाँ ८२३, मन स्थिर एवं शान्त होने पर आत्मा में परमात्म-तत्त्व की झलक ८२३, व्यावहारिक दृष्टि से भी मनोनिरोध आवश्यक ८२४, परिस्थिति का सुधार-बिगाड़ : मनःस्थिति पर निर्भर ८२४, मनोनिरोध न होने पर ८२५, मनुष्य का जैसा मन, वैसा ही बनता है जीवन ८२६, मनोनिरोध से कई उपलब्धियाँ ८२६, मनोनिरोध का वास्तविक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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