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________________ * ३०४ * कर्मविज्ञान : परिशिष्ट * वैश्रमण ने दोनों का विधिवत् विवाह सम्पन्न कराया ५१४, राजा पुष्यनन्दी की परम मातृभक्ति ५१४, यह मातृभक्ति देवदत्ता को अपने विषयभोगों में बाधक लगी, अतः श्रीदेवी को मारने का दुर्विचार ५१४.. देवदत्ता ने श्रीदेवी को मारकर ही दम लिया ५१४, दासियों द्वारा पुष्यनन्दी को मातृ-हत्या का समाचार मिलते ही मूर्च्छित होकर गिर पड़ा ५१५, देवदत्ता को राजा पुष्यनन्दी द्वारा मृत्युदण्ड दिया गया ५१५, देवदत्ता का भविष्य : अधिकतर अन्धकारमय, अन्त में प्रकाशमय ५१५, निष्कर्ष ५१६, दसवाँ अध्ययन : अंजूश्री के पूर्वभव का वृत्तान्त ५१६, राजा विजयमित्र ने अपने लिए अंजूश्री की माँग की ५१६, अंजूश्री योनिशूल की असह्य पीड़ा से व्यथित ५१७, वैद्यादि भी विविध उपचार करके असफल रहे ५१७, अंजूश्री को पापकर्म का दुःखद फल यहाँ भी मिला, आगे भी ५१७, अंजूश्री का भविष्य अधिकतर अन्धकारपूर्ण, अन्त में उज्ज्वल ५१७, दस अध्ययनों में दस कथानायकों के दुःखद फल ५१८, विपाकसूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में सुखविपाक का संक्षिप्त परिचय ५१८, सुबाहुकुमार का पूर्वभव : दानशील सुमुख गाथापति के रूप में ५१८, सुमुख गाथापति द्वारा सुदत्त अनगार को विधिपूर्वक आहारदान ५१८, सुमुख गाथापति के सद्गुणों की प्रशंसा ५१९, सुमुख का जन्म अदीनशत्रु राजा के पुत्र सुबाहुकुमार के रूप में तथा विवाहादि ५१९, सुबाहुकुमार ने भगवान महावीर का धर्मोपदेश श्रवण किया ५१९, सुबाहुकुमार द्वारा सम्यक्त्व-प्राप्ति तथा श्रावकव्रत ग्रहण ५२०, सुबाहुकुमार की रूप- शरीर-सम्पदा तथा ऋद्धि के विषय में गौतम की जिज्ञासा ५२०, सुबाहुकुमार के उज्ज्वल भविष्य का फलितार्थ ५२०, सुबाहुकुमार का गृहस्थ धर्म से अनगार धर्म में प्रव्रजित होने का संकल्प ५२१, सुबाहुकुमार की दीक्षा, अध्ययन, तपश्चरण एवं समाधिमरण का संक्षिप्त वर्णन ५२१, उज्ज्वल भविष्य : सुबाहुकुमार को अनेक भवों के बाद सर्वकर्ममुक्ति प्राप्त ५२१, शेष नौ अध्ययनों का संक्षिप्त दिग्दर्शन ५२२, पाप और पुण्य - दोनों के फल में महदन्तर की समीक्षा ५२३, विपाकसूत्र के मूल स्रोत और फलभोग का वर्णन ५२४ | (१३) पुण्य-पाप के निमित्त से आत्मा का उत्थान-पतन पृष्ठ ५२५ से ५३८ तक साधनामय जीवन में पुण्य, पाप और धर्म का स्रोत : कहाँ और कैसे ? ५२५, पाप-पथ से पुण्य पथ की ओर मुड़कर आत्मा का उत्थान किया ५२५, निरावलिका में पापफल निमित्त आत्म- पतन की कथा ५२६, कल्पावतंसिका में पुण्यफल के निमित्त से कल्पविमानवासी देवत्व का वर्णन ५२६, पुष्पिता में पुण्योपार्जन के फलस्वरूप देवत्व - प्राप्ति ५२६, पुष्पचूलिका में संयम साधना में उत्तरगुण - विराधना से देवीरूप में ५२७, वृष्णिदशा में वृष्णिवंशीय दस साधकों का वर्णन ५२७, अनुत्तरौपपातिकसूत्र में प्रचुर पुण्यराशि वाले मानवों को अत्यधिक सुखद फल प्राप्ति ५२७, अनुत्तरौपपातिकसूत्र में तीन वर्ग, तैंतीस अध्ययन ५२७, अनुत्तरौपपातिक कौन-कौन, क्यों और कैसे ? ५२८, प्रथम वर्ग दस अध्ययन ५२८, जालीकुमार द्वारा उपलब्ध पुण्यराशि का फल विजयविमान एवं सिद्धत्व प्राप्ति ५२८, शेष नौ अध्ययनों के कथानायकों का संक्षिप्त परिचय ५२८, द्वितीय वर्ग : तेरह अध्ययन : संक्षिप्त परिचय ५२९, तृतीय वर्ग : दस अध्ययन संक्षिप्त नामोल्लेख ५२९, धन्यकुमार : उत्कृष्ट भोग से संयम - तपश्चरण योग में प्रवृत्त ५३०, अनगार धन्यकुमार का संयमी जीवन ५३०, धन्यकुमार अनगार का उत्कट तप प्रशंसा और अभिनन्दन ५३१, धन्य अनगार द्वारा संलेखनापूर्वक समाधिमरण और मुक्ति ५३१, सुनक्षत्र अनगार का वर्तमान और भविष्य ५३२, अनुत्तरौपपातिक के शेष आठ कथानायकों का संक्षिप्त परिचय ५३२, राजप्रश्नीयसूत्र में प्रदेशी राजा : सूर्याभदेव तक का संक्षिप्त परिचय ५३३, निरयावलिकासूत्र : प्रथम श्रुतस्कन्ध, प्रथम वर्ग का संक्षिप्त परिचय ५३३, कल्पावतंसिका दस अध्ययन : संक्षिप्त नामोल्लेख ५३४, पुष्पिका दस अध्ययन : संक्षिप्त परिचय ५३४, निरयावलिका : चतुर्थ श्रुतस्कन्ध, चतुर्थ वर्ग: पुष्पचूलिका दस अध्ययन ५३५, श्रीदेवी का पूर्व जीवन, संयमी जीवन और प्रथम स्वर्ग-प्राप्ति ५३५, शेष देवियों का जीवन : अन्त में पुण्य के सुखद-फल की प्राप्ति ५३६, वृष्णिदशा के कथानायकों का संक्षिप्त परिचय ५३६, निषध द्वारा भोगमार्ग से त्यागमार्ग की साधना से सिद्धि ५३७-५३८ । Jain Education International For Personal & Private Use Only .. www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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