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________________ खण्ड ६ कर्मविज्ञान : तृतीय भाग Jain Education International कुल पृष्ठ ५३९ से १०५२ तक कर्मों का आस्रव और संवर निबन्ध १८ पृष्ठ ५३९ से १०५२ तक (१) कर्मों का आनव स्वरूप और भेद पृष्ठ ५४१ से ५७१ तक अथ कर्म-आगमन-जिज्ञासा ५४१, कर्मों को कौन बुलाता है, कैसे बुलाता है ? ५४१, कर्मों का प्रवेश किस जीव में और कैसे ? ५४२, सरोवर में नाले खुले होने से जलागमन की तरह आत्मा में भी आम्रवद्वारों से कर्मागमन ५४३, आनव का व्युत्पत्त्यर्थ और मिथ्यात्वादि स्रोतों से कर्मों का आगमन ५४३, भगवान द्वारा कर्मों के सर्वदिग्व्यापी स्रोतों से सावधान रहने का निर्देश ५४४, अकर्मा का होने का उपाय : भगवान द्वारा प्रतिपादित ५४४, सर्वव्यापी कर्मपुद्गलों को आने से कैसे रोका जाये ? : एक चिन्तन ५४४, कर्मों का आम्रव प्रभावित नहीं कर सकेगा : कैसे और किस उपाय से ? ५४५, स्निग्ध दीवार की तरह राग-द्वेष स्निग्ध आत्मा पर ही कर्मरज चिपकती है ५४५, अशुभ कर्म से दूर रहें, शुभ कर्म को भी कम से कम प्रवेश कराएँ ५४६, अवांछनीय तत्त्वों की तरह अवांछनीय कर्मों से मुख मोड़ लें ५४६, अवांछनीय कोलाहल का अस्वीकार और वांछनीय के साथ तालमेल ५४७, अवांछनीय तत्त्व को अस्वीकार करने का तात्पर्य ५४७, आवश्यकतानुसार कोलाहल के साथ तालमेल और उपेक्षा ५४७, अशुभ कार्यों का अस्वीकार, शुभ कार्यों के साथ तालमेल : क्यों और कैसे ? ५४८, अवांछनीय कर्मों का अस्वीकार या उपेक्षा किस प्रकार हो ? ५४९, व्यक्तित्व को ढिलमिल या दुर्बल न बनाएँ ५४९, कर्मों के आम्रव के दो प्रकार और उनका कार्य ५४९, कर्मों के सामान्य आनव की प्रक्रिया और लक्षण ५५०, अन्य दर्शनों में भी आम्रव और उसके कारणों का उल्लेख ५५१, भावानव और द्रव्यानव: स्वरूप, प्रक्रिया और प्रकार ५५२, भावानव की दो शाखाएँ : साम्परायिक और ईर्यापथिक आम्रव ५५३, ईर्यापथिक आस्रव का अर्थ, लक्षण एवं कार्य ५५४, साम्परायिक कर्म- आम्रव के उनचालीस आधार ५५५, साम्परायिक आम्रव का प्रथम आधार : अव्रत ५५६, अव्रत के मुख्य पाँच अंग : हिंसादि ५५६, हिंसा : अव्रत का प्रथम अंग : स्वरूप और विश्लेषण ५५७, अव्रत का दूसरा अंग : असत्य : स्वरूप और विश्लेषण ५५८, अव्रत का तृतीय अंग : स्तेय - चोरी : स्वरूप और विश्लेषण ५६०, अव्रत का चतुर्थ अंग: अब्रह्मचर्य - मैथुन : स्वरूप और विश्लेषण ५६०, अव्रत का पंचम अंग : परिग्रह : स्वरूप और विश्लेषण ५६१, अव्रत के ये पाँच अंग : एक विश्लेषण ५६२, साम्परायिक आस्रव का द्वितीय आधार : कषाय ५६२, इन्द्रिय-इन्द्रियों द्वारा विषयों में राग-द्वेषयुक्त प्रवृत्ति: साम्परायिक आम्रव का तृतीय आधार ५६४, इन्द्रियों के द्वारा सहज रूप से विषयों में प्रवृत्ति दोषयुक्त नहीं, दोषयुक्त है राग-द्वेष ५६४, साम्परायिक • कर्मानव का पंचम आधार : चौबीस क्रियाएँ ५६७, सूत्रकृतांगोक्त आम्रवरूप तेरह क्रियाएँ और उनका लक्षण ५५०, साम्परायिक आस्रव के दो भेद : शुभाम्रव और अशुभास्रव ५७१। (२) आनव की आग के उत्पादक और उत्तेजक पृष्ठ ५७२ से ५८५ तक आम्नव शुद्ध आत्मा को आवृत, विकृत और सुषुप्त कर देता है ५७२, आम्रव का निरोध होने पर ही शुद्ध आत्मिक सुख की अनुभूति ५७२, आम्रव की आग आत्मा के ज्ञानादि गुणों को विकृत कर डालती है। ५७३, आम्नव की आग के उत्पादक एवं उत्तेजक कौन ? : यह जानना आवश्यक ५७३, कर्मों के विविध रहस्यों को जानने वाला ही परिज्ञातकर्मा होता है ५७३, कर्मास्रवों का भलीभाँति परिज्ञान क्यों आवश्यक है ? ५७३, कुछ आग लगाने वाले कुछ आग में पूला डालने वाले तत्त्व ५७४, नमिराजर्षि के सामने यही इन्द्र-प्रश्न था : आपके समक्ष भी यही ५७४, मूल आग है - राग-द्वेषरूप आम्रव हेतु की ५७४, आनवाग्नि का प्रथम उत्पादक व सहायक : मिथ्यात्व ५७५, आम्रवाग्नि का द्वितीय उत्पादक व सहायक : अविरति या For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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