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________________ * विषय-सूची : द्वितीय भाग * ३०३ * हैं ? ४९१. दुःखविपरक में पापकर्मों के कारण प्राप्त दुःखदायक फलों का वर्णन ४९१, सुखविपाक में पुण्यकर्मों तथा धर्माचरण से प्राप्त सुखदायक फलों का वर्णन ४९२, विपाकसूत्र आदि में विभिन्न व्यक्तियों के पाप-पुण्य कर्मों के फलों का ही लेखा-जोखा ४९३. दुःखविपाक में पूर्वभव तथा इहभव में आचरित पापकर्मों तथा उनके फल का वर्णन ४९३, मृगापुत्र का पूर्वभव : पापकर्मलीन इक्काई राठौड़ ४९४, पापकर्मों का तात्कालिक फल : सोलह असाध्य रोगों की उत्पत्ति, बाद में नरकगति ४९४, मृगापुत्र के भव में भी गर्भ में आने से लेकर मृत्यु तक असह्य व्याधि, पीड़ा और ग्लानि का दुःख भोगा ४९४, इक्काई को मृगापुत्र के भव के बाद भी लाखों बार जन्म लेना पड़ा, सद्वोध नहीं मिला ४९५, उज्झितक के द्वारा गोवंश के नाश तथा वेश्यागमनादि कुकर्मों का दुःखद फल ४९५, उज्झितक के भव में माता-पिता के वियोग, तिरस्कार तथा अपमान का दुःख भोगना पड़ा ४९६. आवारा भटकता हुआ उज्झितक कुव्यसनों में रत रहने लगा ४९६. वेश्यासक्त उज्झितक को पापकर्मों के फलस्वरूप दुर्दशापूर्ण मृत्युदण्ड मिला ४९६, अभग्नसेन पूर्वभव में : निर्णय नामक अण्डों तथा मद्य का व्यापारी एवं सेवनकर्ता ४९७, अभग्नसेन के भव में नागरिकों को त्रस्त करने और कुव्यसनियों के पृष्ठपोषक बनने का कुपथ्य ४९७, ग्रामवासियों की पुकार पर अभग्नसेन को विश्वास में लेकर जीवित पकड़ा और वधादेश दिया ४९८. बुरी तरह से प्रताड़ित करते हुए सूली पर चढ़ाया गया ४९८, अभग्नसेन का भविष्य ४९९. छण्णिक के भव में विविध पशुओं के माँस का पापपूर्ण व्यापार करने का दुष्फल ४९९, पापकर्म के फलस्वरूप शकट की दुर्गति ५00, गणिका सुदर्शना में आसक्ति, निष्कासन करने पर भी पुनः गाढ़ी प्रीति ५00, पापकर्म के कारण शकट की दुर्दशापूर्ण मृत्यु ५00, शकटकुमार पुनः बहन के साथ दुराचार-सेवन के पापपूर्ण पथ पर ५०१, शकटकुमार का भविष्य भी पापपूर्ण ५०१, लाखों भव करने के पश्चात् शकट का भविष्य उज्ज्वल होगा ५०१, राज्य-शान्ति के लिए अनेक बालकों के हृदय के माँस-पिण्ड को होमने वाला महेश्वरदत्त ५0१, बृहस्पतिदत्त को परस्त्रीगामिता का कटुफल मिला ५०२, उदयन के अन्तःपुर में बेरोकटोक प्रवेश तथा पद्मावती देवी के साथ अनुचित सम्बन्ध ५०२, परस्त्रीगमन के पापकर्म का इहलोक में ही दुप्फल मिला ५०३, बृहस्पतिदत्त का भविष्य अधिक अन्धकारमय, अन्त में उज्ज्वल ५०३, छठा अध्ययन : नन्दीवर्द्धन का पूर्वभव : दुर्योधन चारकपाल के रूप में ५०३, दुर्योधन चारकपाल द्वारा किया गया अत्याचार पापकर्म-परिपूर्ण ५०३. दुर्योधन के पापकर्मों का दुःखद फल : छटी नरक-भूमि में जन्म ५०४, नन्दीषेण भव में भी पितृवध करके स्वयं राजा बनने का षड्यंत्र रचा ५०४, श्रीदाम-नरेश ने युवराज का अत्यन्त गर्म रसों से राज्याभिषेक करवाकर मरवा डाला ५०५. नन्दीषेण का अन्धकारपूर्ण भविष्य अन्त में उज्ज्वल बनेगा ५०५, उम्बरदत्त : पूर्वभव में धन्वन्तरी नामक कुशल राजवैद्य ५०६. धन्वन्तरी राजवैद्य द्वाग रोगियों को विविध माँस खाने का परामर्शरूप पापकर्म ५०६, पापकर्म के फलस्वरूप छटी नरक में ५०७, उन्बादत्त की माँ को मद्यपान के साथ भोजन करने का दोहद उत्पन्न हुआ ५०७, उम्बरदत्त के माँ-बाप मरने से उसे घर से निकाल दिया गया ५०७, उम्बरदत्त के शरीर में सोलह असाध्य रोगों की उत्पत्ति ५०७. उम्बादत्त का अन्धकारपूर्ण एवं अन्त में उज्ज्वल भविष्य ५०८, आठवाँ अध्ययन : शौरिकदत्त के पूर्वभव का परिचय श्रीदं रसोइये के रूप में ५०८, श्रीद रसोइये का माँस-खण्डों को संस्कारित करने का करतापूर्ण कर्म ५०८, इन पापकर्मों का दुःखद फल : छटी नरक भूमि में जन्म ५०९. मच्छीमार समुद्रदत्त के पुत्र के रूप में जन्म, यौवन में पित वियोग ।, 0९. शीरिकदत्त विविध मत्स्यों के माँस का व्यापारी बना ५०९, शौरिकदत्त के गले में मछली का काँटा फँस गया : असह्य पीड़ा से आक्रान्त ५१०, शौरिकदत्त का भविष्य अधिक अन्धकारमय : स्वल्प उज्ज्वल ५११, देवदत्ता का पूर्वभव : सिंहसेन के रूप में ५११, श्यामादेवी में आसक्ति : अन्य गनियों की उपेक्षा ५११. श्यामादेवी को मारने की योजना ५११. चिन्तित श्यामादेवी : कोपभवन में ५११, श्यामादेवी को सिंहसेन-नरेश द्वारा आश्वासन ५१२, चार सौ निन्यानवे मासुओं को कूटागारशाला में निवास दिया ५१२, कूटागारशाला के चारों ओर आग लगवाकर उन्हें मरवा दी ५१२, . इस क्रूरकर्म के फलस्वरूप सिंहसेन छटी नरक में ५१२. सिंहसेन का जीव देवदत्ता के रूप में : दत्त सार्थवाह की पुत्री ५१२, गजा वैश्रमणदत्त ने अपने पुत्र पुष्यनन्दी के लिए देवदत्ता की माँग की ५१३, वैश्रमणदत्त की ओर से पुष्यनन्दी के लिए देवदत्ता की माँग का प्रस्ताव ५१३, दत्त सार्थवाह द्वारा सहर्ष स्वीकृति ५१३. पुत्री देवदत्ता को पालकी में बिठाकर शोभायात्रापूर्वक वैश्रमण-नरेश को सौंपी ५१३, राजा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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