SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 447
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * विषय - सूची: द्वितीय भाग * २९३ * की साधना की कसौटी भी समाज - सम्पर्क ७८, शुभ और शुद्ध कर्मों के अर्जन के लिए ही समाज आदि का निर्माण किया गया ७९, सह-अस्तित्व एवं सहयोग का मंत्र भी कर्मक्षय या शुभ कर्मार्जन के लिए ७९, निपट स्वार्थ आदि की संकीर्ण भावना से ही राग-द्वेष कषायादि का प्रादुर्भाव ८० अशुभ कर्मबन्ध से बचाने के लिए सर्वभूत मैत्री का मंत्र ८१, कर्मविज्ञान - प्रेरित आत्मौपम्य सिद्धान्त व्यक्ति को समाज एवं समष्टि से जोड़ता है। ८१, जैन - कर्मविज्ञान का रहस्य न समझ पाने से व्यक्तिवाद की भ्रान्ति ८२, जैन- कर्मविज्ञान द्वारा आत्मौपम्य भाव से यत्नाचारपूर्वक चर्या करने की प्रेरणा ८३, उच्च साधक के लिए भी समाज - समष्टि के प्रति आत्मीयता के साथ तटस्थता आवश्यक ८४, गृहस्थ जीवन में भी आत्मीयता और तटस्थता का विवेक ८५, आत्मीयता के साथ तटस्थता का विवेक भी ८५, आत्म-तुल्यता की भावना का विविध पहलुओं से निर्देश ८६, सामूहिक कर्म, हिंसा और पापकर्मबन्ध की शंका ८८, तीन प्रकार से समाधान ८८, सामाजिक और वैयक्तिक जीवन में कर्म से नहीं, पापकर्म से बचने का निर्देश ८९, सामूहिक जीवन में कर्म-विवेक धर्म बन जाता है ९०, अहिंसादि धर्मरूप रस के लिए शुद्ध कर्मरूप छिलका जरूरी ९१ कर्मविज्ञान के अनुसार सामूहिक जीवनदृष्टि में विवेक ९१, सामूहिक चित्त-शुद्धि में कर्म की शुद्धि ९२ । (६) कर्म - सिद्धान्त की त्रिकालोपयोगिता पृष्ठ ९३ से ११० तक कर्म-सिद्धान्त : त्रिकाल - प्रकाशक दीपक ९३, जैन- कर्मविज्ञान का त्रिकालस्पर्शी यथार्थ मत ९४, अतीत को जानो, वर्तमान में सत्पुरूषार्थ करो और भविष्य को देखो ९४, भावकर्म और द्रव्यकर्म : अतीत और अनागत के प्रतीक ९५, अतीत के भावों को देखकर वर्तमान में पुरुषार्थ - प्रेरणा और भविष्य का सुधार ९५, अनाथी मुनि ने भी अतीत को पढ़ा, वर्तमान को सुधारकर उज्ज्वल बनाया ९६, किसी के भी अतीत और भविष्य को इस तरह जाना देखा जा सकता है ९६, वर्तमान जीवन-यात्रा का सम्बन्ध अतीत यात्रा से है ९७ प्राचीन जैन कथाओं में भी अतीन्द्रिय ज्ञानियों द्वारा भूत-भविष्य कथन ९७, कर्म-सिद्धान्त से अनुस्यूत श्रेणिक, नृप - पुत्र मेघकुमार का अतीत, वर्तमान और भविष्य ९८, अतीत का प्रतिक्रमण, वर्तमान में संवर एवं भविष्य का प्रत्याख्यान करो ९९ वर्तमान अतीत से सम्बद्ध तथा भविष्य से अनुस्यूत ९९, अतीत की पकड़ से मुक्त होने के लिए प्रतिक्रमण आवश्यक है १००, अतीत का प्रतिक्रमण - विशेषज्ञ वर्तमान और भविष्य को सुधार सकता है १०१, जीवन की समस्त अवस्थाएँ अतीतकृत कर्म से अनुस्यूत १०१, अतीत की पकड़ से मुक्त होने में समर्थ या असमर्थ १०१, अतीत से कर्म का सम्बन्ध क्यों और छूटता कैसे ? १०२, कर्म से संयुक्त और वियुक्त होने का त्रैकालिक रहस्य समझो १०२, साधना का सूत्र है - वर्तमान में ही रहो १०२, जीवन के त्रैकालिक सत्य को जानने-समझने के लिये तीनों कालों को जानना जरूरी १०३, विरोधाभास का समाधान: अतीत, अनागत के पंखों को काट डाले १०३, वर्तमान में स्थिर रहने के तीन महत्त्वपूर्ण शास्त्रीय उपाय १०३, इन तीनों साधना यथासमय जागरूक होकर करे १०४, वर्तमान में जीने के उपाय और अपाय १०४, वर्तमान को ही दृढ़ता से पकड़ो : एक उपाय १०४, वर्तमान में जीने का अभ्यास करना, अतीत की पकड़ से छूटने का उपाय १०५, प्रतिक्रमण आदि की चेतना जाग्रत होने पर वर्तमान में स्थिरता सुदृढ़ १०५, मुनि स्थूलभद्र अतीत की पकड़ से मुक्त हो वर्तमान संवर साधना में दृढ़ रहे १०६, वर्तमान में दृढ़ वही, जो ज्ञाता- द्रष्टाभाव या आत्म-भाव में स्थिर रहता है १०७, प्राचीन और नवीन सभी समस्याओं का हल : वर्तमान में संवर - निर्जरा में स्थिर रहना १०७, नमिराजर्षि की वर्तमान में स्थिरता का प्रशंसा १०८, जैन-कर्मविज्ञान में कर्म के साथ-साथ धर्म का रहस्य भी १०९, धर्म का प्रयोजन अतीत के कर्मबन्धनों को तोड़ना एवं नये कर्मों को रोकना ११० । (७) जैन-कर्मविज्ञान की महत्ता के मापदण्ड पृष्ठ १११ से १२४ तक द्वारा अन्य दार्शनिकों और विचारकों का कर्म-सम्बन्धी मन्तव्य अधूरा १११, जैन- कर्मविज्ञान की महत्ता का मूल्यांकन १११, जैन-कर्मविज्ञान ने संसार की सभी आत्माओं को परमात्म सदृश माना है ११२, "जैन-कर्मविज्ञान में आत्मा के शुद्ध और अशुद्ध दोनों स्वरूपों का विशद वर्णन ११२, जैन- कर्मविज्ञान जीवों की सभी अवस्थाओं का वर्णन ११३, जैन - कर्मविज्ञान की महत्ता को प्रमाणित करने वाले कार्य ११४, जैन-कर्मविज्ञान द्वारा प्रत्येक जीव की कर्मजन्य सभी अवस्थाओं का वर्णन ११५, जीवों की अनन्त भिन्नता का चौदह मार्गणाओं द्वारा वर्गीकरण ११५, जीवों का आध्यात्मिक विकासक्रम : चौदह गुणस्थानों में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy