________________
* २९४ * कर्मविज्ञान : परिशिष्ट *
११६. प्रत्येक जीव की विशेषता बताने के लिए पाँच विषयों का निरूपण ११७, जीवस्थान का चौदह भेदों में वर्गीकरण ११७. जीवस्थान. गणस्थान. मार्गणास्थान एवं भाव में कौन हेय. कौन उपादेय? ११७. गणस्थान-निरूपण का उद्देश्य ११८. जीवस्थानों में गणस्थान का. मार्गणास्थानों में दोनों का निरूपण ११९. मार्गणा और गणस्थान में अन्तर ११९. जीवस्थान एवं मार्गणास्थान में कौन हेय ज्ञेय. उपादेय? १२०. अन्य दर्शनों में कर्म-सम्बन्धी वर्णन नाममात्र का है १२०. कर्म-प्रकतियों के साथ बन्धादि का निरूपण जैन-कर्मविज्ञान में ही १२१ गणस्थान-क्रम के आधार पर जीव की बन्धादि योग्यता का निरूपण : जैन-कर्मविज्ञान में १२१. जैन-कर्मविज्ञान में कर्म का क्रमबद. व्यवस्थित और विस्तत चिन्तन १२२. अथ से इति तक उठने वाले प्रश्नों का समाधान : जैन-कर्मविज्ञान में १२२, जैन-कर्मविज्ञान भी क्रिया-प्रतिक्रिया के नियम पर आधारित १२३, संचित कर्मों का क्षय संवर और तप से, वैज्ञानिक ढंग से सिद्ध है १२४। (८) जैन-कर्मविज्ञान की विशेषता
पृष्ठ १२५ से १४६ तक जैन-कर्मविज्ञान : सर्वांगीण जीवन-विज्ञान १२५, जैन-कर्मविज्ञान : कर्मावृत दशा के साथ-साथ कर्ममुक्त दशा का भी प्ररूपक १२५, जैन-कर्मविज्ञान : एकेश्वरवाद के बदले अनन्त परमात्मवाद का समर्थक १२६. जैन-कर्मविज्ञान : अनन्त ज्ञानादि चतुष्टय-प्राप्ति का प्रेरक १२६. जैन-कर्मविज्ञान : आत्मा को परमात्मा बनाने की कला का शिक्षक १२६, बहिरात्मा से अन्तरात्मा और परमात्मा बनने की प्रक्रिया जैन-कर्मविज्ञान में १२७, जैन-कर्मविज्ञान कर्म के उभय पक्ष को समुचित स्थान देता है १२७, कमविज्ञान ने आत्मा के साथ शरीर का सम्बन्ध कार्मणशरीर द्वारा माना १२८, कर्मों का वर्गीकरणपूर्वक विवेचन जैन-कर्मविज्ञान में ही १२९, ऐसा कर्मफल का सिद्धान्त अन्यत्र नहीं मिलता १२९, जैन-कर्मविज्ञान का साहित्य : व्यापक एवं विराट् वैज्ञानिक रूप में १२९, जैन-परम्परा में कर्मवाद का सुव्यवस्थित वैज्ञानिक रूप १३०, कर्मविज्ञान की त्रिकालदर्शिः से त्रिकाल कर्म-व्यवस्था १३0, जैन-कर्मविज्ञान की विशेषता : आत्मा के परिणामी नित्य होने का स्वीकार १३१, कर्मविज्ञान की दीर्घदर्शिता से अन्तिम ध्येय-प्राप्ति का विवेक १३१, जैन-कर्मविज्ञान : मानव-जाति से भी आगे प्राणिमात्र के प्रति आत्मवत् भाव का पुरस्कर्ता १३१, जैन-कर्मविज्ञान . भिन्नता में भी एकता का दर्शन कराता है १३२, जैन-कर्मविज्ञान प्राकृतिक नियमवत् नियमबद्ध १३२, कर्मविज्ञानवेत्ता : प्राणि-भिन्नता देखकर भी समभाव रखता है १३२, कर्मविज्ञान : प्राणिमात्र के प्रति सर्वभूतात्मभूत बनने का प्रेरक १३३. जैन-कर्मविज्ञान : प्राणिमात्र के प्रति आत्मवत् भावना का प्रेरकं १३३, जैन-कर्मविज्ञान का मन्तव्य : फलदाता स्वयं कर्म ही है १३४. जैन-कर्मविज्ञान की विशिष्ट देन : पूर्वबद्ध संचित कर्मों के फल में परिवर्तन १३५. उद्वर्तनाकरण और अपवर्तनाकरण का रहस्य १३५, जैन-कर्मविज्ञान के नियमानुसार कर्म को फलदान-शक्ति न्यूनाधिक भी हो सकती है १३७, कर्मों की फलदान-शक्ति में तारतम्य : क्यों और किस कारण से? १३८, मनोविज्ञान की तरह कर्मविज्ञान में भी कर्मफल की स्व-संचालित व्यवस्था है ? १३८, जैन-कर्मविज्ञान का विशिष्ट नियम : जाति-परिवर्तन : प्रकृति संक्रमण १३९, संक्रमण सिद्धान्त के दो रूप : मार्गान्तरीकरण और उदात्तीकरण १४१, संक्रमण सिद्धान्त के कतिपय नियम १४१. संक्रमण का उदात्तीकरणरूप १४२. पूर्वबद्ध कर्मों के उदात्तीकरण का उद्देश्य : दोषों का परिशोधन करना १४२. अनप्रेक्षा से संक्रमण में बहत सहायता मिलती है १४३. जीवों की सार्वयोनिकता का सिद्धान्त : जैन-कर्मविज्ञान की देन १४३. उदीरणाकरण का सिद्धान्त भी समय से पर्व कर्मक्षय करने का उपाय १४४, जैन-कर्मविज्ञान और आधुनिक मनोविज्ञान की उदीरणा-पद्धति प्रायः समान १४४, कर्मों के उदय और उदीरणा में अन्तर १४५, जैन-कर्मविज्ञान की सर्वोत्कृष्ट विशेषता १४६। (९) जैन-कर्मविज्ञान : जीवन-परिवर्तन का विज्ञान
पृष्ठ १४७ से १५३ तक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र और अंग में कर्म का संचार १४७. जैन-कर्मविज्ञान : गति. प्रवृत्ति आदि में परिवर्तन बताने वाला थर्मामीटर १४७, कर्मविज्ञान के रहस्य श्रवण-मनन से जीवन में अचूक परिवर्तन १४८-१५३। (१०) कर्मवाद : निराशावाद या पुरुषार्थयुक्त आशावाद ? पृष्ठ १५४ से १७७ तक ___ कर्मवाद : संसार-समुद्र में प्रकाश-स्तम्भ १५४, अज्ञानी दिङ्मूढ़ व्यक्ति प्रकाश-स्तम्भ से लाभ नहीं उठा पाते १५४, कर्मवाद-सिद्धान्त से कतराने वाले भ्रान्तिमय मानव १५५. कर्मवाद के सिद्धान्त से लाभ उठाने
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org