SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 446
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * २९२ * कर्मविज्ञान : परिशिष्ट * सर्वक्षेत्रीय विज्ञानों के साथ समन्वय और महत्त्व ३0. कर्मविज्ञान : आत्म-शक्तियों के प्रकटीकरण में प्रेरक ३०, कर्मविज्ञान : अन्धकार से प्रकाश की ओर बढ़ने के लिये प्रेरक ३१, कर्मविज्ञान में आध्यात्मिक उत्क्रान्ति के लिए तीन सोपान ३१, कर्मविज्ञान का रहस्यज्ञाता ही सम्यग्दृष्टि ३२, सम्यक्त्व-प्राप्ति के पश्चात् कर्मविज्ञानी की दृष्टि, गति, मति ३२, उपसंहार ३३। (३) व्यावहारिक जीवन में कर्म-सिद्धान्त की उपयोगिता पृष्ठ ३४ से ४७ तक ____ सिद्धान्त की कसौटी और जैन कर्म-सिद्धान्त ३४, कर्म-सिद्धान्त के अनुसार व्यवहार ही जैन-कर्मविज्ञान की महत्ता ३५, कर्म-सिद्धान्त का व्यावहारिक जीवन में प्रयोक्ता कैसा होता है ? ३६, जैन कर्म-सिद्धान्त पद-पद पर सँभलकर चलने की प्रेरणा देता है ३६, दैनन्दिन जीवन में कर्म-सिद्धान्त का उपयोग ३७, कर्म-सिद्धान्तविज्ञ में कर्मफल को समभाव से भोगने की शक्ति ३८. ,कर्म-सिद्धान्तविज्ञ दुःख-विपत्ति के समय व्याकुल नहीं होता ३८, विपत्ति के समय कर्म-सिद्धान्त आत्म-निरीक्षण एवं उपादान देखने की प्रेरणा देता है ३९, विपन्नावस्था में कर्म-सिद्धान्त की प्रेरणा ३९, कर्म-सिद्धान्त द्वारा आश्वासन ४0, कर्म-सिद्धान्त का स्वर्णिम सन्देश ४१, कर्म-सिद्धान्त की सबसे बड़ी उपयोगिता ४१, कर्म-सिद्धान्त मनुष्य को अपना भाग्यविधाता, स्वयं कर्म का प्रेरक ४२, कर्मविज्ञान सिंहवृत्ति से सोचने की प्रेरणा देता है ४३, कर्म-सिद्धान्त पर दृढ़ आस्थावान व्यक्ति उपादान को देखता है ४३, कर्म-सिद्धान्त पर विश्वास से निश्चिन्तता एवं दुःख-सहिष्णुता ४४, दुःख का कारण स्वयं में ढूँढ़कर अनुकूलता-प्रतिकूलता में दृढ़ ४४, कर्म-सिद्धान्त की उपयोगिता के विषय में मेक्समूलर का मत ४५, कर्मविज्ञान वर्तमान में प्रत्यक्ष व्यवहारों की व्याख्या भी प्रस्तुत करता है ४६, दैनन्दिन व्यवहारों की व्याख्या भी कर्मविज्ञान प्रस्तुत करता है ४६, कर्मविज्ञान इस जन्म में कृतकों की संगति भी वर्तमान व्यवहार के साथ बिठाता है ४६-४७। (४) नैतिकता के सन्दर्भ में कर्म-सिद्धान्त की उपयोगिता , पृष्ठ ४८ से ६८ तक भौतिकविज्ञान के समान कर्मविज्ञान भी कार्य-कारण-सिद्धान्त पर निर्भर ४८, भूतकालीन आचरण वर्तमान चरित्र में तथा वर्तमान चरित्र भावी चरित्र में प्रतिबिम्बित ४८, अतीतकालीन शुभाशुभ आचरण के अनुसार भावी परिणाम : शास्त्रीय दृष्टि में ४८, पूर्वकालिक नैतिक आचरण करने वालों का वर्तमान व्यक्तित्व : शास्त्रीय दृष्टि में ५०, कर्म-सिद्धान्त के परिप्रेक्ष्य में अनैतिक आचरणकर्ता को नैतिक बनने का उपदेश ५१, नैतिक-अनैतिक कर्मों के कर्ता को कर्म ही फल देते हैं, ईश्वरादि नहीं ५१, सप्त कुव्यसनरूप अनैतिक कर्मों का किसी माध्यम से नहीं, स्वतः मिलता है ५२, ईसाई धर्म में पापकर्म से बचने की चिन्ता नहीं : क्यों और कैसे? ५३, विश्वास और अनुग्रह पर जोर, अनैतिकता से बचने पर नहीं ५४, नरकायु और तिर्यञ्चायु कर्मबन्ध के कारण ५५, इस्लाम धर्म में नैतिक आज्ञाएँ हैं, पर अमल नहीं ५६, दूसरे धर्म-सम्प्रदायों आदि से घृणा, विद्वेष की प्रेरणा : पापकर्म के बीज ५७, जैन-कर्मविज्ञान : नैतिक सन्तुष्टिदायक ५७, कर्म-सिद्धान्त का कार्य : नैतिकता के प्रति आस्था जगाना, प्रेरणा देना ५८, जैन-कर्मविज्ञान कर्मानुसार फल प्रदान की बात कहता है ५९, मानवता भी कर्म-सिद्धान्तानुसार अशुभ कर्मक्षय से मिलती है ६0, देव-दुर्लभ मनुष्यत्व : नैतिकता का प्राण और प्रथम अंग ६0, नैतिकता का उल्लंघन या पालन वर्तमान में ही शुभाशुभ फलदायक ६१, परिवार और समाज में नैतिकता के प्रति अनास्था का दुष्परिणाम ६२, भौतिकतावादी नैतिकता-विरुद्ध अतिस्वार्थी ६२, इस अनैतिकता का दूरगामी परिणाम ६२, वृद्धों द्वारा आत्महत्या : उनकी ही अनैतिकता उन्हें ही भारी पड़ी ६२-६८। (५) सामाजिक सन्दर्भ में उपयोगिता के प्रति आक्षेप और समाधान पृष्ठ ६९ से ९२ तक . कर्म-सिद्धान्त की उपादेयता पर नाना आक्षेप ६९, जोहन मेकेंजी द्वारा एक आक्षेप और उसका समाधान ६९, ये सभी लोकहितकर कार्य प्रशंसनीय हैं ७0, पुण्य कर्मबन्धक कार्य भी प्रशंसनीय माने जाते हैं ७३, लोकहित के नाम पर किये गए ये कार्य प्रशंसनीय नहीं ७३, शुभ कर्मबन्धक होते हुए भी ये कार्य प्रशंसनीय माने जाते हैं ७४, ये कार्य पुण्यबन्धक भी और कदाचित् कर्मक्षयकारक भी ७४, पारमार्थिक दृष्टि और व्यावहारिक दृष्टि ७५, जैन कर्म-सिद्धान्त का समाज संरचना से सम्बन्ध अनिवार्य ७५, समाज के साथ सम्बन्ध से ही कर्मक्षय या निरोध की साधना होगी ७६, कर्म-सिद्धान्त सामाजिक ही नहीं, सर्वभूतात्मभूत बनने का प्रेरक ७७, समाज-सेवा : आत्म-साक्षात्कार की सीढ़ी का प्रथम पापाण ७८, कर्म के निरोध-क्षयरूप धर्म Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy