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________________ कर्मविज्ञान द्वितीय भाग खण्ड ४,५ कुल पृष्ठ १ से ५३८ तक चतुर्थ खण्ड : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता निबन्ध ११ पृष्ठ १ से १९६ तक (१) कर्मविज्ञान का यथार्थ मूल्य निर्णय पृष्ट ३ से २१ तक आस्तिक के लिए वस्तु के अस्तित्व के साथ वस्तुत्व एवं मूल्य-निर्णय भी आवश्यक ३, तीर्थंकरों ने वस्तु के वस्तुत्व एवं गुणधर्मत्व का निरूपण किया ३, इस खण्ड में कर्म-सिद्धान्त का मूल्य-निर्णय ४, समग्र गणधरवाद में कर्म के अस्तित्व, वस्तुत्व एवं विशेषत्व का निर्णय ४, वस्तु का मूल्य-निर्धारण चेतना के अधीन ५. इन्द्रियों के माध्यम से मूल्य-निर्धारण पूर्णतः यथार्थ नहीं ५. सर्वज्ञ आप्त-पुरुषों द्वारा नौ तत्त्वों के माध्यम से यथावस्थित मूल्य-निर्णय ६, कर्मों का कर्ता, भोक्ता, क्षयकर्ता जीव ही है ७, जीव के बाद अजीव तत्त्व का निर्देश क्यों ? ८. शेप पुण्य-पापोंदि तत्त्व भी एक या दूसरे प्रकार से कर्म से सम्बद्ध ८, कर्मविज्ञान का नौ तत्त्वों के निर्देश का उद्देश्य ९, कर्म की अपेक्षा से नौ तत्त्वों में कौन हेय, ज्ञेय, उपादेय? ९. कर्मविज्ञान की दृष्टि से नौ तत्त्वों में ज्ञेय. हेय और उपादेय तत्त्व ९, कर्म-दुःख से सम्बन्धित अध्यात्म जिज्ञासु द्वारा उटने वाले नौ प्रश्नों का नौ तत्त्वों के रूप में समाधान १0, लोकोत्तर रोगी के लिए सात तथ्य जानना-मानना आवश्यक ११. जैन-कर्मविज्ञान द्वारा प्ररूपित चार तत्त्व अन्य तीन दर्शनों में भी १२, सिर्फ ज्ञान से ही मुक्ति दिलाने वाले दर्शन १२, कोरे ज्ञान या कोरी क्रिया से कर्म-मुक्ति नहीं हो सकती १३, भव-भ्रमण रोग-मुक्ति के लिए भी ज्ञान-दर्शन-क्रिया तीनों आवश्यक १३, तत्त्वों पर आत्मानुभवात्मक सम्यक्त्वमूलक श्रद्धा से ही कर्म-मुक्ति १३, कर्म-सिद्धान्त के यथार्थ मूल्य-निर्णय के लिए ज्ञानादि त्रिपुटी जरूरी १५, मूल्य-निर्णय व्यक्ति की दृष्टि, श्रद्धा, रुचि एवं बुद्धि पर निर्भर १५, मिथ्या धारणाओं के शिकार गलत मूल्य-निर्णय करते हैं १६, विपरीत दृष्टि वाले व्यक्तियों का विपरीत दृष्टिकोण एवं आचरण १६, विपरीत दृष्टि लोगों द्वारा कर्म-सिद्धान्त का विपरीत प्ररूपण १७. दृष्टि, श्रद्धा, बुद्धि आदि के विपरीत होने के कारण १८, मिथ्यादृष्टि विवेकमूढ़ मानवों का बुद्धि-विपर्यास १८, पापकर्मरत मानव शुद्ध धर्म से अनभिज्ञ रहता है १९, मलिन बुद्धिजन यथार्थ मूल्य-निरूपण नहीं कर पाते २०, कर्म-सिद्धान्त का यथायोग्य मूल्य-निर्णय न होने का फल २0, सम्यग्दृष्टि के लिए मिथ्याश्रुत भी सम्यक् : मिथ्यादृष्टि के लिए सम्यक्थुत भी मिथ्या २०, सम्यग्दृष्टि ही नौ तत्त्वों के माध्यम से कर्म-सिद्धान्त के यथार्थ मूल्य-निर्णय में सक्षम २१। (२) आध्यात्मिक क्षेत्र में कर्मविज्ञान की उपयोगिता पृष्ठ २२ से ३३ तक ____ कर्मविज्ञान की उपयोगिता पर सर्वतोभावेन विचार करना आवश्यक २२, जीवन के सर्वांगों और सर्वक्षेत्रों का विश्लेषण कर्मविज्ञान में है २२, सभी दृष्टियों से कर्मविज्ञान पर विचारणा आवश्यक २३, कर्म सर्वथा त्याज्य नहीं, अपितु संसार-यात्रा के अन्त तक उपादेय भी हैं : क्यों और कैसे ? २३, सर्वज्ञोक्त होने से कर्मविज्ञान सर्वाधिक उपयोगी एवं प्रेरक २४, भौतिक उपयोगितावादी कर्मविज्ञान से लाभ नहीं उठा पाते २५, कर्मविज्ञान से आध्यात्मिक उपलब्धि २६, भौतिकता और आध्यात्मिकता की आराधना में अन्तर २७, कर्मविज्ञान मुमुक्षु आत्मा के लिए दर्पण के समान २७, कर्मविज्ञान के अभ्यास से आत्मा में निराकुलता और शान्ति का अनुभव २७, व्यायामादि अभ्यास के समान कर्मविज्ञान के अभ्यास से महालाभ २८. कर्मविज्ञान के चिन्तनरूप धर्मध्यान से रागादि की मन्दता २८, कर्मविज्ञान का अध्येता धर्मध्यान ध्याता हो जाता है २८, कर्मविज्ञान : आत्म-शक्ति को कर्म-शक्ति से प्रवल बताता है २९, कर्मविज्ञान : अध्यात्मविज्ञान का विरोधी नहीं, अपितु पृष्ठपोषक व सहायक २९, कर्मविज्ञान : वैभाविक और स्वाभाविक दोनों अवस्थाओं का ज्ञान कराता है २९, कर्मविज्ञान : अध्यात्मविज्ञान को प्रकट करने की कुँजी ३0, कर्मविज्ञान का Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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