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* २९० * कर्मविज्ञान : परिशिष्ट *
५९८, तीनों गुणों वाले व्यक्तियों की क्रियमाण कर्म करने की पद्धति ५९९, क्रियमाण कर्म करते समय सावधान रहो ६00, जैनदृष्टि से प्रारब्ध भी बदला जा सकता है ६00, कट्टर प्रारब्धवादी पुरुषार्थहीन हो जाते हैं ६०१, लौकिक दृष्टि से प्रारब्ध और पुरुषार्थ का तालमेल ६०१, लोकोत्तर आध्यात्मिक दृष्टि से प्रारब्ध से लाभ उठाओ, मोक्ष-पुरुषार्थ करो ६०१, प्रत्येक परिस्थिति में सन्तोषपूर्वक पुरुषार्थ करो ६०२, अर्थ और काम प्रारब्ध पर छोड़ो, धर्म-मोक्ष में पुरुषार्थ करो ६०२, सच्चा शुभ क्रियमाण पुरुषार्थ (कर्म) ही प्रारब्ध बनता है ६०२, अपने प्रारब्ध का निर्माण अपने हाथ में ६०३, मनोऽनुकूल प्रारब्ध कर्म के लिए क्रियमाण में सावधान रहो ६०३, संचित कर्मों से छुटकारा कैसे प्राप्त हो? ६०३, ज्ञानाग्नि से संचित आदि सब कर्म नष्ट हो जाते हैं ६०५-६०६। (१४) कर्म का सर्वांगीण और परिष्कृत स्वरूप
- पृष्ठ ६०७ से ६१९ तक क्या कर्मरूपी महासमुद्र की थाह लेना अतीव कठिन है ? ६०७, आत्मा और कर्म का पृथक्करण . करना असम्भव नहीं है ६०७, कर्म का सर्वांगीण और परिष्कृत रूप समझना आवश्यक ६०८, ज्ञ-परिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यान-परिज्ञा से कर्मों से मुक्त जीव परब्रह्म परमात्मा बन सकता है ६०८, कर्म के परिष्कृत स्वरूप को समझना आवश्यक है : क्यों और कैसे? ६०९, कर्म करना सहेतुक है, वह जीव का स्वभाव नहीं ६१0, कर्म के परिष्कृत स्वरूप में इच्छाकृत बन्धक कर्मों का ही समावेश ६१०, पूर्वोक्त तीन तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में बन्धक कर्म के चार मुख्य लक्षण ६१२, प्रथम लक्षण ६१२, 'कीरइ' पद की व्याख्या ६१२, आत्मा कर्म-परमाणुओं को कैसे आकृष्ट कर लेता है ? ६१३, चर्मचक्षुओं से अदृश्य कार्मण-वर्गणा का जीव द्वारा ग्रहण करना भी कर्म है ६१३, कर्म का उभयविध लक्षण ६१४, आत्मा के पार्श्ववर्ती कर्म-परमाणु आत्मा से कैसे सम्बद्ध हो जाते हैं ? ६१४, 'जिएण' की व्याख्या ६१५, 'हेउहिं' की व्याख्या ६१६, कर्म का दूसरा परिष्कृत लक्षण ६१६, कर्म का तृतीय परिष्कृत लक्षण ६१६, कर्म के लक्षण में क्रिया और क्रिया के हेतु-दोनों का समावेश ६१७, कर्म का चतुर्थ लक्षण : परमार्थ दृष्टि से ६१८, कर्म का आध्यात्मिक दृष्टि से परिष्कृत स्वरूप ६१८, जैन-कर्मविज्ञान का यह सर्वांगीण, परिष्कृत स्वरूप : क्यों और कैसे? ६१९। ।
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