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* विषय-सूची : प्रथम भाग * २८९ *
अपने अधीन नहीं ५५८ कर्मफल-त्याग के चार आधार ५५८, निष्काम कर्मी सत्कर्तव्य, परार्थकर्म आदि अनासक्तिपूर्वक करता है ५५८, गीता में सकाम कर्मियों की पहचान ५६०, सकाम कर्म में कामना से लेकर तृष्णा तक की दौड़ ५६०, काम्य कर्मों का तथा कर्मफल का त्याग ही कर्मत्याग है ५६०, जैनदृष्टि से सर्वकाम-त्यागी ही वास्तविक त्यागी साधक ५६१, निष्काम कर्मी साधक कर्म को न पकड़कर कर्म के मूल 'काम' को पकड़ता है ५६१, निष्काम कर्म में कर्मफल की आकांक्षा तथा कर्मफल का त्याग ५६२, मीमांसकों द्वारा प्रतिपादित त्रिविध कर्म सकाम हैं ५६२, गीता-प्रतिपादित सकाम और निष्काम कर्म ५६३, तप और पंचाचार का अनुष्ठान सकाम न हो, निष्काम हो ५६३, निष्काम कर्म के लिए सम्यक्त्व सर्वप्रथम आवश्यक ५६३, ये बालतप सकाम हैं, निष्काम नहीं ५६४, कर्म-त्याग का उपदेश परम्परा से निराकुल सुख के लिए है ५६४, सकाम-निष्काम दोनों कर्मों में कामना होते हुए भी महान् अन्तर ५६४, सकाम कर्म की प्रवृत्ति : निपट स्वार्थानुरंजित ५६५, सकाम कर्म को निष्काम में परिणत करने की तीन विधियाँ ५६७, निष्काम पक्ष का ग्रहण कठिन ५६७, निष्काम कर्म में सूक्ष्म प्रशस्त रागात्मक कामना तथा फलाकांक्षा भी ५६८, सैद्धान्तिक दृष्टि से दशम गुणस्थान तक लोभ रहता है ५६८, सिद्धान्त और आचरण में अन्तर रहेगा ही ५६९, अप्पाणं वोसिरामि : निष्काम कर्मी का मूल मंत्र ५६९, परहितार्थ परार्थ प्रवृत्ति ५७०, संकीर्ण स्वार्थ सकाम कर्म का और विस्तीर्ण स्वार्थ निष्काम कर्म का प्रतीक ५७०, सकाम कर्म ५७०। (१२) कर्मों के दो कुल : घातिकुल और अघातिकुल
पृष्ठ ५७१ से ५८0 तक ___आत्मा के मूल और प्रतिजीवी गुणों के घातक कर्मों के दो कुल ५७१, घातिकुल और अघातिकुल के कर्म ५७२, घातिकुलीन कर्म का लक्षण ५७२, घातिकर्म किस प्रकार आत्म-गुणों का घात करते हैं ? ५७३, चारों घातिकर्मों का कार्य ५७३, घातिक कर्मों की उत्कटता ५७३, इन चारों में मोहनीय कर्म प्रबल एवं प्रमुख ५७४, घातिक कर्मों का उन्मूलन हुए बिना केवलज्ञान एवं मोक्ष नहीं होता ५७५, घातिकर्म के दो भेद : सर्वघाति और देशघाति ५७५, सर्वघाति कर्म-प्रकृतियाँ ५७६, देशघाति कर्म-प्रकृतियाँ ५७६, अघाति कर्म : स्वरूप, कार्य और प्रकार ५७६, घाति-अघाति कर्मों में कौन पापरूप, कौन पुण्य रूप? ५७७, अघाति कर्मों का कार्य और प्रभाव ५७७, घाति कर्मों को उन्मूलन करने का क्रम ५७८, घाति कर्म : समूल नष्ट हो जाने पर ५७८, अघाति कर्म : प्रभाव और कार्य ५७८, अघाति कर्मों का सर्वथा उन्मूलन हो जाने पर ५७९, मुमुक्षु आत्माओं का लक्ष्य : घाति-अघाति कर्मों का क्षय करना ५८०। (१३) कर्म के कालकृत त्रिविधरू रूप
पृष्ठ ५८१ से ६०६ तक ___ कालकृत कर्म : त्रैकालिक रूप में ५८१, कर्म की त्रिकालकृत गतिविधि को जानना-समझना अति कठिन ५८१, कर्म का कालिक, रूप : आगम और गीता में ५८२, कर्म का त्रैकालिक रूप समझना अत्यावश्यक ५८२. प्रत्येक दर्शन में कर्म की कालकत तीन अवस्थाएँ ५८२, कर्मों के बन्ध, सत्ता और उदय के अन्तर्गत संख्यातीत प्रश्न और समाधान ५८३, फलदान की दृष्टि से जैन और वैदिक-परम्परा में कालकत तीन भेद ५८४. संचित कर्म और सत्ता-स्थित कर्म ५८४. वैदिक दष्टि से क्रियमाण कर्म का स्वरूप ५८५, जैनदृष्टि से बध्यमान और वैदिक दृष्टि से क्रियमाण में अन्तर ५८५, क्रियमाण कर्म : कब संचित, कब क्रियमाण? ५८५. संचित और क्रियमाण कर्म एक-दसरे से अनस्यत ५८६. अनेक जन्मों के संचित कर्म फलभोग के सम्मख होने पर ही फल देकर छटते हैं ५८७. राजा दशरथ को तीनों कालकत कर्मों का सामना करना पड़ा ५८७, जब धृतराष्ट्र राजा के प्राकृत कर्म उदय में आए ५८८, क्रियमाण कर्म तत्काल फल क्यों नहीं देते? ५८८, प्रारब्ध कर्म : स्वरूप और विश्लेषण ५८९, प्रारब्ध कर्म पूर्णतया भोगे बिना नहीं छूटते ५८९, संचित कर्म प्रारब्ध के रूप में कब तक? ५९0, त्रिविध कालकृत कर्मों से छुटकारा पाये बिना- मोक्ष नहीं ५९०, संसार-सागर दुस्तर क्यों? ५९०, कालकृत कर्मों का यह चक्र अनन्तकाल तक चलता है ५९१, तीनों कालकृत कर्मों का फल किसी न किसी रूप में भोगना पड़ता है ५९१, प्रारब्ध कर्म को हँसते-हँसते भोग लो ५९२, राजा परीक्षित ने अशुभ प्रारब्ध को स्वयमेव भोगकर मुक्ति पाई ५९२, संचित कर्म तत्काल फल न दे, इसलिए निश्चिन्त मत होओ ५९४, एक ज्वलन्त घटना : प्रारब्ध कर्म की विचित्रता की ५९४, केवल प्रारब्ध को या केवल क्रियमाण को देखकर ही झट निर्णय न करो ५९६, वर्तमान में पापी सुखी, धर्मी दुःखी : क्यों और कैसे? ५९७, त्रिविध कालकृत कर्म को समझाने हेतु दृष्टान्त
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