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________________ * २८८ * कर्मविज्ञान : परिशिष्ट * अकर्म भी कर्म और कर्म भी अकर्म हो जाता है : कब और कैसे? ५११, आम्रव संवररूप और संवर आम्रवरूप हो जाते हैं : क्यों और कैसे? ५१३, कर्म का अर्थ केवल सक्रियता और अकर्म का केवल निष्क्रियता नहीं ५१४, कर्म का अर्थ केवल प्रवृत्ति नहीं, अकर्म का अर्थ केवल निवृत्ति नहीं ५१४, कर्म, विकर्म और अकर्म (शुद्ध कर्म) की अव्यक्त झाँकी ५१५, भगवान महावीर की दृष्टि में प्रमाद कर्म और अप्रमाद अकर्म ५१६, एकान्त निष्क्रियता को अकर्म मानने में दोषापत्ति ५१६, सकषायी जीव हिंसादि में अप्रवृत्त होने पर भी पापकर्म फलभागी ५१७, सक्रियतामात्र कर्म नहीं, वहाँ अकर्म भी : क्यों और कैसे? ५१८, यावत्कर्म को कर्म मानना न्यायसंगत नहीं, अयुक्तिक भी ५१९, विकर्म का स्वरूप और पहचान ५१९, कर्म और विकर्म में अन्तर ५२०, यतनाशील साधक की क्रिया पापकर्मबन्धक नहीं होती ५२०, कर्म के बन्ध और अबन्ध की मीमांसा ५२१, अकर्म में कुशल व्यक्ति की पहचान ५२१, कर्म, विकर्म और अकर्म का स्पष्ट लक्षण ५२२, भगवद्गीता में कर्म, विकर्म और अकर्म का स्वरूप ५२३, विकर्म प्रतीत होने वाला कर्म भी (शुभ या शुद्ध) कर्म : कब और कैसे ? ५२५, गीता की भाषा में अकर्म भी कर्म, कर्म भी अकर्म : कब और कैसे ? ५२५, कर्म में अकर्म का दर्शन करने वाले महाभाग की पहचान ५२६, बौद्धदर्शन में कर्म, विकर्म और अकर्म का विचार ५२६, कृत और उपचित को लेकर चतुर्विध भंग ५२७, कौन-से कर्म बन्धनकारक, कौन-से अबन्धनकारक ? ५२७, तीनों धाराओं में कर्म, विकर्म और अकर्म के अर्थ में प्रायः समानता ५२८। (१०) कर्म का शुभ, अशुभ और शुद्ध रूप पृष्ठ ५२९ से ५५० तक कर्मजल-परिपूर्ण संसार-समुद्र में तीन प्रकार के नाविक और नौका ५२९, कर्म के तीन रूप : शुभ, अशुभ और शुद्ध ५३१, पाश्चात्य नैतिक दर्शन की दृष्टि से तीनों की जैन-बौद्ध-वैदिक दर्शन के साथ संगति ५३१, शुभ और अशुभ कर्म बनाम पुण्य-पाप ५३१, शुभ कर्म : स्वरूप और विश्लेषण ५३२, अशुभ कर्म : स्वरूप और विश्लेषण ५३२, शुभत्व और अशुभत्व के निर्णय के आधार ५३३, शुभाशुभत्व के मुख्य आधार : गीता में ५३३, जैनदर्शन में कर्म के शुभाशुभत्व का मुख्य आधार : कर्ता का अभिप्राय ५३४, बौद्धदर्शन में शुभाशुभत्व का आधार : एकमात्र कर्ता का आशय ५३५, शुभ आशय : किन्तु प्राणि-हिंसा के कारण कर्म अशुभ ५३७, धर्मग्रन्थ-विहित कर्म, किन्तु अमंगलकारी होने से अशुभ ५३७, कर्म के शुभत्व के लिये मनोवृत्ति और क्रिया दोनों का शुभ होना अनिवार्य ५३८, कर्म के शुभत्व के सम्बन्ध में एकांगी मान्यता का खण्डन ५३८, तांत्रिकों और सुखवादियों की वृत्ति और प्रवृत्ति दोनों ही अशुभ ५३९, बाह्यरूप से वृत्ति शुभ, कृति अशुभ ५३९, यह शुद्ध कोटि का कर्म कदापि नहीं ५४0, कृति अशुभ है तो मांगलिक भी अमांगलिक-अशुभ ५४0, परोपकार कर्म शुभ, परपीड़न कर्म अशुभ ५४१, आत्मानुकूल शुभ, आत्म-प्रतिकूल अशुभ ५४१, कौन-सा व्यवहार शुभ, कौन-सा अशुभ? : इसकी कसौटी आत्म-तुल्यता ५४१, कर्म का शुभाशुभत्व : कहाँ व्यक्ति-सापेक्ष, कहाँ समाज-समापेक्ष? ५४२, वैदिक धर्मग्रन्थों में शुभत्व का आधार : आत्मवत्दृष्टि ५४२, बौद्धधर्म में कर्म के शुभत्व का आधार : आत्मौपम्यदृष्टि ५४२, जैनदृष्टि से कर्म के एकान्त शुभत्व का आधार : आत्मतुल्यदृष्टि ५४५, जब तक संसारी, तब तक शुभ-अशुभ दोनों का उदय ५४५, शुद्ध कर्म की व्याख्या ५४७, शुद्ध अवस्था में शुभ कर्म का होना भी अनावश्यक ५४७, शुभ-अशुभ दोनों को क्षय करने का क्रम ५४८, अशुभ कर्म से बचने पर शेष शुभ कर्म भी प्रायः शुद्ध बन जाता है ५४८, तप, संवर आदि कार्य अनासक्तिपूर्वक करने से ही कर्मक्षय के कारण हैं ५४८-५५०। (११) सकाम और निष्काम कर्म : एक विश्लेषण पृष्ठ ५५१ से ५७0 तक _ 'कर्म' शब्द के अर्थों में भ्रान्ति ५५१, 'कर्म' शब्द के अर्थ भी पूर्वाग्रह-गृहीत हो चुके ५५१, कर्म के सकाम और निष्काम, दोनों रूपों को जानना आवश्यक ५५२. सकाम और निष्काम शब्द के अर्थों में विपर्यास ५५२, सकाम-अकाम निर्जरा से सकाम-निष्काम कर्म के अर्थ भिन्न हैं ५५३. कर्म के संदर्भ में 'काम' शब्द में अनेक अर्थ गर्भित ५५३, 'काम' शब्द में सुषुप्त अर्थों का क्रम ५५४, त्रिविध कृतक कर्म दो-दो प्रकार के हैं : सकाम और निष्काम ५५४, सकाम और निष्काम कर्म की व्याख्या ५५४, भगवद्गीता में सकाम और निष्काम कर्म की व्याख्या ५५५, निष्काम कर्म और अकर्म में अन्तर ५५५, निष्काम और सकाम कर्म की विभाजक रेखा ५५७, निष्काम कर्म की व्याख्या ५५७, निष्काम कर्म में भी फल-प्राप्ति Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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