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________________ * २८० * कर्मविज्ञान : परिशिष्ट * १२७. आत्मा की विभिन्न अवस्थाएँ, कर्मों के कारण १२८, चौरासी लाख जीवयोनि के अनन्त प्राणियों की कर्मकृत विभिन्न अवस्थाएँ १२८, मनुष्य-जाति के विभिन्न जीवन-क्षेत्रों में विभिन्नताएँ कर्मकृत हैं १२८, I व्यक्तिगत जीवन में १२९, व्यक्तिगत भिन्नता का मूल आधार : कर्म या आनुवंशिक संस्कार? १२९, II पारिवारिक जीवन में १२९, III सामाजिक जीवन में १३०, IV राष्ट्रीय जीवन में १३१, V साम्प्रदायिक जीवन में १३१, VI आर्थिक जीवन में १३२, VII आध्यात्मिक और नैतिक जीवन में १३२, 'न्यायमंजरीकार' की दृष्टि में जगत् की विचित्रता का कारण : कर्म १३३, बौद्धदर्शन की दृष्टि में विसदृशता का कारण : कर्म १३४, जैनदृष्टि से मानव-विचित्रता का कारण : कर्म १३५: प्राणिमात्र की विभिन्नता का कारण भी कर्म १३५, जागतिक रंगमंच पर विभिन्न जीवों के द्वारा विचित्र कर्मकृत अभिनय १३६, विश्व-वैचित्र्य ईश्वरकृत सिद्ध नहीं होता १३७-१३८। (८) विलक्षणताओं का मूल कारण : कर्मबन्ध पृष्ठ १३९ से १५७ तक विलक्षणताओं के सम्बन्ध में जैव-वैज्ञानिक मान्यता १३९, पूर्वजन्म-स्मृति भी उनकी दृष्टि में आत्मा की अविच्छिन्नता नहीं १३९, जैव-वैज्ञानिकों की दृष्टि में विलक्षणता का कारण : आनुवंशिकता १३९, जैव-वैज्ञानिकों की दृष्टि में विलक्षणता के आधार जीन्स १४0, कुछ मनोवैज्ञानिकों की दृष्टि में विलक्षणता का कारण : मौलिक प्रेरणाएँ १४१, परन्तु इनसे पूर्णतया मनःसमाधान नहीं होता १४१. विलक्षणता का सम्बन्ध 'जीवन' से नहीं, 'जीव' से है १४१. विलक्षणताओं का मूल कारण : अनक जन्म-संचित कर्म ही १४२, जीवन के प्रारम्भ और जीव के प्रारम्भ में अन्तर १४२, 'जीन' केवल स्थूलशरीर का घटक, कर्म सूक्ष्मतर कार्मणशरीर का १४२, ग्रन्थियों का स्राव : जीवों की विलक्षणता का मूल कारण नहीं १४३. विलक्षणता का मूल कारण : शरीर-विज्ञानमान्य संस्कार सूत्र नहीं, कर्म-परमाणु ही १४३, वौद्धिक और मानसिक क्षेत्र की विलक्षणताएँ कर्मजन्य ही हैं १४४, इन विलक्षणताओं के मूल कारण आनुवंशिकता आदि नहीं, पर्वजन्म संचित कर्म ही १४५, बौद्धिक विलक्षणता का प्रतीक : 'यहूदी मेनुहिन' १४६, 'ल्यूथिनियन' बालक में अनेक भाषा-ज्ञान की विलक्षणता १४७, 'फ्रेडरिक गॉस' की गणितीय विलक्षणता १४८, 'कार्लविट' की बौद्धिक विलक्षणता का मूल कारण : पूर्वजन्मकृत कर्म ही १४८, प्रकाश के आविष्कारक डॉ. यंग की विलक्षण बौद्धिक क्षमता १४९, बचपन से ही विलक्षण प्रखर बुद्धि का धनी : रोवन हेमिल्ट १४९, साहित्य क्षेत्र में कीर्तिमान स्थापित करने वाली बालिका १४९, इन विलक्षणताओं का मूल कारण : आनुवंशिकता आदि नहीं १५0, वज्रस्वामी का प्रखर शास्त्रीय ज्ञान : पूर्वजन्मकृत कर्म का परिणाम १५0, ये स्वभावगत एवं भावनात्मक विलक्षणताएँ भी कर्मकृत हैं, आनुवंशिक नहीं १५०, पूर्वजन्मार्जित कर्म ही जन्मजात विलक्षणता के मूल कारण १५२, मानवीय गुणों में विकास की जन्मजात विभिन्नता पैतृक नहीं १५२, मानवेतर प्राणियों में विलक्षणताएँ कर्म को मूल कारण मानने पर ही सिद्ध होती हैं १५३-१५७। (९) कर्म का अस्तित्व विभिन्न प्रमाणों से सिद्ध पृष्ठ १५८ से १६६ तक कर्मविज्ञान : जैन संस्कृति की रग-रग में रमा हुआ १५८, कर्म के अस्तित्व पर प्रश्न-चिह्न १५८, प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा कर्म के अस्तित्व की सिद्धि १५९, अनुमान-प्रमाण द्वारा कर्म की अस्तित्व-सिद्धि १५९, अन्य दर्शनों में भी कर्म की अस्तित्व-सिद्धि १६५-१६६। (१०) कर्म का अस्तित्व : कब से और कब तक ? पृष्ठ १६७ से १८२ तक कर्म और आत्मा दोनों के अस्तित्व और सम्बन्ध को समझना अनिवार्य १६७, कर्म का अस्तित्व : कब से, कब तक? १६८, दोनों का सम्बन्ध अनादि क्यों. कैसे? १६८, संसार अनादि है, अतएव जीव और कर्म का सम्बन्ध भी अनादि १६८, तात्त्विक दृष्टि से कर्म और जीव का सादि और अनादि सम्बन्ध १६९, विकासवाद और जीव का सम्बन्ध १६९, आत्मा अनादि है तो क्या कर्म भी अनादि है ? : एक विश्लेषण १६९, कर्म और आत्मा में पहले कौन? पीछे कौन? १७०, कर्म पहले या आत्मा? : इसका युक्तिसंगत समाधान १७०, कर्म अकारण ही कैसे लग गए आत्मा के ? १७१, शुद्धि और अशुद्धि का क्रम कैसे टूटेगा? १७२, कर्म पहले था, आत्मा बाद में, यह क्रम भी ठीक नहीं १७३, ईश्वरकृत सृष्टि-रचना का सयुक्तिक निराकरण १७४, दोनों के अनादि सम्बन्ध का अन्त कैसे? १७६, चार प्रकार के सम्बन्ध Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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