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________________ * विषय-सूची : प्रथम भाग * २८१ * १७७, आत्मा और कर्म का तीन प्रकार का सम्बन्ध १७७, प्रवाह रूप से आत्मा और कर्म का अनादि सम्बन्ध १७८, भव्य और अभव्य जीव का लक्षण १७८, अभव्य जीव का कर्म के साथ सम्बन्ध अनादि-अनन्त १७८, भव्य जीव का कर्म के साथ अनादि-सान्त सम्बन्ध १७९, आत्मा और कर्म का संयोग वियोगपूर्वक नहीं होता १७९, जीव और कर्म का संयोग प्रवाह संतति की अपेक्षा अनादि १८०, अनादि की व्याख्या को समझकर सादि मानने में दोष १८0, सादि-सान्त सम्बन्ध की मीमांसा १८0, आत्मा के साथ कर्म के अनादि और सादि सम्बन्ध का स्पष्टीकरण १८२। (११) कर्म-अस्तित्व के प्रति अनास्था अनुचित पृष्ठ १८३ से २०५ तक आत्मा और कर्म के प्रति आस्था : तब और अब १८३, वर्तमान में आस्था-संकट के दुष्परिणाम १८३, देव आदि द्वारा मानव का भाग्य बदलने की अन्ध-श्रद्धा १८४, कर्म के अस्तित्व के प्रति आस्थाहीनता : क्यों और कैसे? १८५, कर्म के अस्तित्व के प्रति आस्थाहीन दो वर्ग १८६, प्रथम वर्ग की अश्रद्धा का कारण १८६, कर्म के प्रति आस्थाहीन : अर्थलिप्सु लोगों के चक्कर में १८६, नास्तिकों की कर्म के अस्तित्व के प्रति अश्रद्धा का कारण और निवारण १८७, वैद्यों एवं नीतिकारों की दृष्टि में रोगादि का मूल कारण : कर्म १८८, कर्मों के अस्तित्व के प्रति अश्रद्धा होने पर १८९, आस्थाहीन अपने लिए अनिष्ट संयोगों को निमंत्रण देता है १८९, अश्रद्धालुओं द्वारा घोर दुष्कर्म : अनन्त संसार-भ्रमण का कारण १९०, कर्म के अस्तित्व के प्रति श्रद्धाहीनों के द्वारा की गई कठोर साधना निष्फल १९१, कर्म के अस्तित्व को झुठलाया नहीं जा सकता १९१, इन कृत्यों का फल तत्काल कहाँ मिलता है ? १९२, कृषक फल न मिलने पर भी आशा और विश्वास नहीं छोड़ता १९२, दुष्प्रवृत्तियों से अपना ही अहित है १९३, जैसा बोओगे, वैसा काटोगे १९३, क्रिया की प्रतिक्रिया अवश्य होती है १९३, दूरदर्शी व्यक्ति कर्मफल न मिलने पर भी दुष्कृत्यों में प्रवृत्त नहीं होता १९४, विलम्ब में ही दूरदर्शिता और बुद्धिमत्ता की परीक्षा १९४, अदूरदर्शी प्राणी स्वयं दुर्दशा के जाल में फँसते हैं १९५, कर्म के अस्तित्व के प्रति संदिग्ध दुष्कर्मों के कारण दण्डित होता है १९५, पापकर्म छिप नहीं सकते १९६, दुष्कर्मी समाजदण्ड, राजदण्ड और प्रकृतिदण्ड पाता है १९६, कर्मफल विलम्ब से भी मिले तो भी उसके अस्तित्व के प्रति श्रद्धा रखो १९७, तत्काल फलवादियों के अव्यवहार्य कुतर्क १९७, समाधान और अनुभव १९७, कर्मफल विलम्ब से मिलने पर भी सभी व्यवहार होते हैं १९८, महान पुरुषों को मिलने वाले अशुभ कर्मफल का कारण पूर्वजन्मकत कर्म हैं १९८ पूर्वजन्मकृत कर्मों के कारण ही विपत्ति, वर्तमान जन्मकृत नहीं १९९, इनकी जन्म से विलक्षणता में कर्म ही कारण है २00, ये चार सिद्धान्त अध्यात्म की सभी शाखाओं द्वारा स्वीकृत २0१. मरणोत्तर जीवन में कर्म और कर्मफल के मानने से लाभ २0१, क्रूरकर्मा व्यक्ति भी मृत्यु के समय स्वकृत दुष्कर्मफल के भय से संत्रस्त २०२, सिकन्दर अन्तिम समय में स्वकृत दुष्कर्मफल से त्रस्त २०२, इहजीवनवादियों द्वारा अनैतिक एवं स्वेच्छाचारी प्रवृत्ति २०३, कर्म को परलोकानुगामी न मानने से बहुत बड़ी हानि २०४, आस्तिकता के मुख्य चार अंग अपनाने आवश्यक २०४, कर्म को मरणोत्तर जीवन में अनुगामी मानने से लाभ २०५ कर्म का मरणोत्तर जीवन में अस्तित्व न मानना कितना अहितकर? २०५, कर्म के अस्तित्व के प्रति आस्था-संकट से बचिये २०५। द्वितीय खण्ड : कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन निबन्ध १० पृष्ठ २०७ से ३५२ तक (१) अध्यात्म-शक्तियों के विकास का उत्प्रेरक : कर्मवाद पृष्ठ २०९ से २१३ तक (२) विभिन्न कर्मवादियों की समीक्षा : चार पुरुषार्थों के सन्दर्भ में पृष्ठ २१४ से २३२ तक · चार पुरुषार्थ और उनके स्वरूप २१४, चारों ही पुरुषार्थों का साध्य २१५, धर्म-पुरुपार्थ यहाँ संवर-निर्जरा का हेतु नहीं २१५, मोक्ष-पुरुषार्थ का फल एवं उपादेयत्व २१५, मोक्ष-पुरुषार्थ को उपादेय Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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