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________________ * मोक्ष की अवश्यम्भाविता का मूल : केवलज्ञान : क्या और कैसे-कैसे? * २७३ * केवलज्ञान की ज्योति किसको प्राप्त हो सकती है, किसको नहीं ? ये और ऐसे ही कतिपय उदाहरणों से यह स्पष्ट प्रतिभासित होता है कि अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान और केवलज्ञान जैसे अतीन्द्रिय अतिशय ज्ञानों के लिए व्यक्ति के स्वयं के आध्यात्मिक पुरुषार्थ की, राग, द्वेष, मोह, क्रोधादि कषाय आदि विभावों पर विजय प्राप्त करने के लिये प्रतिक्षण सावधान-सजग रहकर पुरुषार्थ करने की आवश्यकता है, तभी मोहनीय आदि चार घातिकर्मों का क्षय होकर केवलज्ञान की ज्योति प्राप्त हो सकती है। पापी और नरकगति की सम्भावना वाले को भी वीतरागोपदेश क्रियान्वित करने से मुक्ति संभव है 'सूत्रकृतांग नियुक्ति' में कहा गया है-“कोई कितना ही पापात्मा हो तथा अवश्य ही उत्कृष्ट नरक-स्थिति प्राप्त होने की सम्भावना हो, किन्तु वह भी वीतराग के उपदेश (वीतरागता या अकषाय-संवर की साधना) द्वारा उसी भव में (केवलज्ञान प्राप्त करके) (सर्वकर्म) मुक्ति प्राप्त कर सकता है।' इसके विपरीत कई श्रमणोपासक-श्रमणोपासिकाओं तथा श्रमण निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थियों को पूर्वोक्त साधक-साधिकाओं से बढ़कर कई गुनी उत्कृष्ट साधना करने पर भी शीघ्र केवलज्ञान प्राप्त नहीं होता। मोक्ष प्राप्त होना तो उससे आगे की बात है। उसका स्पष्ट कारण यह है कि उनका रागभाव, मोह, कषायभाव घटता या मिटता नहीं। सम्प्रदाय, गुरु, भक्त-भक्ता, स्थान, आहार, क्षेत्र, पूजा-प्रतिष्ठा, सुख-सुविधा आदि की प्राप्ति की कामना, वासना, अहंता-ममता, आसक्ति, मोह, राग-द्वेषादि या प्रियता-अप्रियता के भाव का प्राबल्य ही मुख्य कारण है, जो केवलज्ञान तो क्या अवधिज्ञान को भी प्राप्त नहीं होने देता। 'स्थानांगसूत्र' में चार ऐसे बाधक कारणों का उल्लेख है, जो अतिशय ज्ञान (अवधि, मनःपर्याय और केवलज्ञान) प्राप्त नहीं होने देते। वे इस प्रकार हैं-(१) जो निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी बार-बार स्त्रीकथा, भक्तकथा, देशकथा और राजकथा करते हैं; (२) जो निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी विवेक (अशुद्ध भावों का त्याग कर शरीर और आत्मा की भिन्नता का अनुप्रेक्षण) और व्युत्सर्ग (शरीर और शरीर से सम्बद्ध माता-पिता, परिवार, संघ, गुरु आदि सजीव तथा वस्त्र, पात्र, स्थान, क्षेत्र, प्रतिष्ठा, आहारादि के प्रति ममत्व छोड़ने के कायोत्सर्ग) के द्वारा आत्मा को सम्यक् प्रकार से भावित नहीं करते; (३) जो निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी पूर्व-रात्रि और अपर-रात्रिकाल के समय धर्म-जागरणा करके जाग्रत नहीं रहते; और (४) जो निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी प्रासुक, एषणीय, उञ्छ १. अवि हु भारियकम्मा: नियमा उक्कस्स निरय-ठितिगामी। ___ तेऽवि हु जिणोवदेसेण, तेणेव भवेण सिझंति॥ -सूत्रकृतांग नियुक्ति, गा. १६० For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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