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* २७४ * कर्मविज्ञान : भाग ९ *
और सामुदानिक भिक्षा की सम्यक् प्रकार से गवेषणा नहीं करते। इन चार कारणों से निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को तत्काल अतिशययुक्त ज्ञान-दर्शन उत्पन्न होते-होते रुक जाते हैं, उत्पन्न नहीं हो पाते। साथ ही आगे के सूत्र में बताया है कि अगर साधु-साध्वी उपर्युक्त चार कारणों के निवारणार्थ उक्त चार विशिष्ट कार्यों को अपने श्रमण-जीवन की दैनिक चर्या में स्थान दें, तो उन्हें उक्त अभीष्ट अतिशययुक्त ज्ञान-दर्शन तत्काल (इसी समय) उत्पन्न हो सकते हैं। जैसे पूर्व-पृष्ठों में उदाहृत साधक और साधिकाओं को अपने तीव्र सत्पुरुषार्थ से तत्काल केवलज्ञानकेवलदर्शन प्राप्त हो गया था। उच्च साधना तथा क्रियापात्रता होते हुए भी राग-द्वेष-कषायादि । क्षीण न हों तो केवलज्ञान नहीं
निष्कर्ष यह है कि चाहे कोई कितना ही उच्च क्रियापात्र साधक हो, चाहे उसको कई प्रकार की सिद्धियाँ, लब्धियाँ या उपलब्धियाँ प्राप्त हो गई हों, चाहे उसकी प्रसिद्धि दिगदिगन्त तक फैली हुई हो, जनता उसे चाहे भगवान, प्रभु, अवतार, परम गुरु, महन्त, करुणावतार, चमत्कारी, उच्च शक्ति-सम्पन्न, योगी, शक्ति, जगदम्बा या जगन्माता कहती हो, जब तक उसके राग-द्वेष, कषायादि विभावजनित मोहनीय कर्म तथा उसके साथी शेष तीन घातिकर्म पूर्णतया क्षीण न हों, तब तक उसे केवलज्ञान-केवलदर्शन की प्राप्ति नहीं हो सकती। गणधर गौतम स्वामी इस तथ्य के ज्वलन्त उदाहरण हैं। इसलिए मोक्ष-प्राप्ति की अवश्यम्भाविता का मूलाधार केवलज्ञान है, जिसके प्रगट हुए बिना सर्वकर्म क्षयरूप पूर्ण मोक्ष नहीं हो सकता।
१. (क) चउहिं ठाणेहिं निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अस्सिं समयंसि अतिसेसे णाणदंसणे
समुप्पज्जिउकामे वि ण समुप्पज्जेज्जा, तं. जहा-(१) अभिक्खणं-अभिक्खणं इथिकहं, भत्तकहं देसकहं रायकहं कहेत्ता भवति। (२) विवेगेण विउसग्गेणं णो सम्मयप्पाणं भावित्ता भवति। (३) पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि णो धम्मजागरियं जागरइत्ता भवति।
(४) फासुयस्स एसणिज्जस्स उछस्स सामुदाणियस्स णो सम्मं ग़वेसित्ता भवति। (ख) चउहि ठाणेहिं णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा अस्सिं समयंसि (तक्खणे) अतिसेसे णाणदंसणे समुप्पज्जिउकामे समुपज्जेज्जा। तवं सम्मं गवेसित्ता भवति।
-स्थानांग., स्था. ४, उ. २, सू. २५४-२५५
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