SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 425
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * मोक्ष की अवश्यम्भाविता का मूल : केवलज्ञान : क्या और कैसे-कैसे? * २७१ * घातिकर्म इतनी जल्दी क्षय हो गए। केवली मुनि केशरी ग्रामानुग्राम विहार करते हुए जनता में धर्म-जागृति करते रहे।' चण्डरुद्राचार्य के नवदीक्षित शिष्य को और उस निमित्त से आचार्य को केवलज्ञान कैसे प्राप्त हुआ ? चण्डरुद्राचार्य तो अत्यन्त क्रोधी स्वभाव के थे। एक दिन उज्जयिनी नगरी के एक श्रेष्ठी का नवविवाहित पुत्र अपने मित्रों के साथ आचार्य के दर्शनार्थ आया। उसके मित्रों ने हास्यवश आचार्य से कहा-“गुरुदेव ! यह हमारा मित्र संसार से विरक्त है। आपके पास दीक्षा लेना चाहता है।" आचार्य ने दो-तीन बार कहा"क्या वास्तव में यह दीक्षा लेना चाहता है?" श्रेष्ठि-पुत्र कुछ नहीं बोला। मित्रों ने कहा-“हाँ, महाराज ! इसे शीघ्र दीक्षा दे दीजिये। किसी को विश्वास नहीं होता था कि यह नवविवाहित युवक दीक्षा लेने को तैयार होगा। परन्तु आचार्य ने युवक से कहा-'यदि तुम्हारी इच्छा दीक्षा लेने की है तो केशलोच करा लो, मैं दीक्षा दे दूंगा।'' युवक तैयार हो गया। आचार्य ने केशलोच करके उसे दीक्षा दे दी। मित्रों को उसने लौटा दिया और सोचा-'गुरुदेव ने कृपा करके मुझे जैनेन्द्री दीक्षा दे दी है, अब मुझे रत्नत्रय की आराधना करके मोक्षमार्ग में आगे बढ़ना चाहिए।' नवदीक्षित शिष्य ने आचार्यश्री से कहा- “गुरुदेव ! हो सकता है, मेरे स्वजनसम्बन्धी आयें और बखेड़ा खड़ा करें, मुझे संयम से च्युत करने का प्रयत्न करें। इसलिए अच्छा होगा, हम यहाँ से विहार करके अन्यत्र पहुँच जाएँ।' आचार्यश्री ने कहा-“सन्ध्याकाल हो चुका है। मुझे रात्रि में कम दिखाई देता है। कैसे चलना होगा?" शिष्य ने गुरुदेव को कंधे पर बिठाया और पहले अपने देखे हुए वनमार्ग की ओर चल पड़ा। रास्ता ऊबड़-खाबड़ तो था ही, फिर अँधेरा भी था। इसलिए बार-बार ठोकर लगती तो आचार्य को कष्ट होता था। वे क्रुद्ध होकर शिष्य को डाँटने-फटकारने लगते। कभी-कभी मुंडित मस्तक पर डंडा भी मार देते। लेकिन शिष्य विनयी एवं शान्त स्वभाव का था, रोष-आक्रोश तथा प्रतिक्रिया से रहित होकर सब कुछ समभाव से सहता रहा। मन ही मन सोचता-'मैं गुरुदेव की आशातना कर रहा हूँ, कष्ट दे रहा हूँ।' परन्तु गुरु का परम उपकार मानता कि इन्हीं की कृपा से मुझे कषायविजय, वीतरागता और रत्नत्रय की आराधना का स्वर्ण अवसर मिला है। इस प्रकार शिष्य शुभध्यान से शुक्लध्यान में पहुँच गया। एकमात्र आत्म-ध्यान में निमग्न होने से उसकी आत्मा में सुषुप्त, आवृत और प्रच्छन्न केवलज्ञान प्रकट हो गया। केवलज्ञान की ज्योति के कारण रात्रि के सघन अन्धकार में भी उसके चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश था। अतः अब वह सही मार्ग १. देखें-वर्धमान देशना १/९ में केशरी केवली की कथा, जैनकथा कोष से सार संक्षिप्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy