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________________ * मोक्ष की अवश्यम्भाविता का मूल : केवलज्ञान : क्या और कैसे-कैसे ? * २६९ * विरक्त होकर मुनिधर्म में दीक्षित हो गए । यावज्जीवन बेले-बले तप का संकल्प किया। पारणे के दिन राजगृही में भिक्षा के लिए जाते, वहाँ जनता ने उन्हें पीड़ित, प्रताड़ित, अपमानित किया परन्तु उन्होंने अपने कर्मों का दोष मानकर समभाव से सहन किया । भिक्षा में जो भी मिलता, उसे समभाव से ग्रहण करते । क्षमा की साकार प्रतिमा बनकर उत्कृष्ट तितिक्षा से घातिकर्मों का क्षय करके कैवल्य प्राप्त किया और १५ दिनों का संलेखना - संथारा करके सर्वकर्ममुक्त सिद्ध-बुद्ध बन गए।' हत्यारा दृढ़प्रहारी कैसे केवलज्ञानी बना ? दृढ़प्रहारी का पूर्व जीवन तो हत्यारे और लुटेरे का जीवन था । एक दिन एक ब्राह्मण के यहाँ आमंत्रित था । खीर बनी थी । वह धृष्टतापूर्वक खीर के बर्तन के पास बैठ गया । ब्राह्मणी ने उसे टोका तो क्रोध भड़क उठा । तलवार के प्रहार से टुकड़े कर दिये । ब्राह्मण सहायता के लिए दौड़ा तो उसे भी मार डाला। गाय अपने स्वामी को बचाने के लिये दौड़ी तो गर्भवती गाय पर तलवार चलाई, उसका गर्भस्थ बच्चा भी बाहर निकल आया । गाय और बछड़ा दोनों तड़फड़ाते हुए मर गए। इन पाँचों के शव को अब वह घूर घूरकर देख रहा था । बछड़े की छटपटाहट से आज उसके हृदय में करुणा की एक चिनगारी फूटी। उसे मन ही मन पश्चात्ताप हुआ। मन ही मन स्वयं को धिक्कारने लगा । उसका दिल रह-रहकर रोने लगा । खून से सनी तलवार वहीं छोड़कर वह विरक्तभाव से साधु बनकर वन की ओर चला पड़ा। एक विचार और स्फुरित हुआ-वन में संवर और निर्जरा का कहाँ प्रसंग आएगा? जिनका मैंने सर्वस्व लूटा है या जिनके कुटुम्बियों का वियोग किया है, वे तो सारे नगर में हैं, वहीं रहकर मुझे अपने पापों का प्रायश्चित्त करने तथा मुझ पर किये जाने वाले प्रहारों को समभाव - क्षमाभाव से, प्रतिक्रियाभाव विरतिपूर्वक सहकर संवर- निर्जरा करने का अवसर मिलेगा । यों सोचकर नगर के पूर्व-द्वार के पास दृढ़प्रहारी ध्यानस्थ खड़ा हो गया। लोगों द्वारा ताड़ना-तर्जना की गई, पर दृढ़प्रहारी शान्तभाव से सहता रहा। जब यहाँ कोप शान्त हो गया लोगों का, तो वह क्रमशः पश्चिम, दक्षिण और उत्तर के द्वारों में से प्रत्येक पर डेढ़-डेढ़ महीना ध्यानस्थ खड़ा रहा। यों छह महीने के इस कायोत्सर्ग - व्युत्सर्ग तप से दृढ़प्रहारी मुनि ने समस्त घातिकर्मों का क्षय करके केवलज्ञान प्राप्त किया। इस समताधारी मुनि का अब सर्वकर्म-मुक्तिरूप मोक्ष तो निश्चित ही था। १. देखें - अर्जुनमाली का मुनि बन जाने के पश्चात् का जीवन-वृत्त, अन्तकृद्दशा, वर्ग ६ में २. देखें - दृढ़प्रहारी का जीवन-वृत्त आवश्यककथा में तथा जैनकथा कोष में, पृ. २०२-२०३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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