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________________ * मोक्ष की अवश्यम्भाविता का मूल : केवलज्ञान : क्या और कैसे-कैसे? * २६७ * हुआ। अतः चौथी बार भी अनिच्छा से मंच पर चढ़कर अपनी कला दिखा रहा था, तभी उसकी दृष्टि पड़ोस के घर में एक निःस्पृह, अनासक्त एवं ब्रह्मचर्य से तेजस्वी मुनि पर पड़ी, जो एक वस्त्राभूषण-सज्जित रूपवती गृहिणी से आहार ले रहे थे। उसके रूप के समक्ष नट-कन्या का रूप कुछ नहीं था, फिर भी मुनि नीची दृष्टि किये निःस्पृहभाव से आहार ले रहे थे। यह देखते ही इलायचीकुमार की विचारधारा एकदम पलटी। सोचने लगा-'कहाँ ये निःस्पृह श्रमण और कहाँ मैं ? ये तो देवांगना-सी सौन्दर्यमूर्ति की ओर देख भी नहीं रहे हैं, मैं एक नट-कन्या के पीछे पागल बना हुआ हूँ। मैंने अपनी अनमोल जिन्दगी शरीर सौन्दर्य में आसक्त बनकर खो दी, आत्मिक सौन्दर्य-आत्म-गुणों की ओर दृष्टिपात नहीं किया।' यों उनकी स्वभावमुखी धारा ऊर्ध्वमुखी हो गई, सकलचारित्र के भाव उदित हो गये। बाँस के संकीर्ण मंच पर ही उनका शरीर स्थिर हो गया, कषायों का मूलोच्छेद होते ही, शेष तीन घातिकर्मों का क्षय हुआ और उन्हें वहीं केवलज्ञान-दर्शन की प्राप्ति हो गई। फिर उन्होंने बाँस के मंच से नीचे उतरकर वैराग्यप्रेरक उपदेश दिया, जिससे प्रेरित होकर नट-कन्या और राजा का हृदय भी वैराग्य से ओतप्रोत हो गया। राग-द्वेषादि दूर होते ही उन्हें भी कैवल्य की प्राप्ति हो गई। क्षुधा-असहिष्णु कूरगडूक मुनि केवलज्ञान से सम्पन्न क्यों हो गये ? - मुनि कूरगडूक का वास्तविक नाम तो ललितांग था। दीक्षा लेकर उन्होंने इन्द्रियविजय का स्वतंत्र पथ अपनाया। भिक्षा में वे सरस आहार छोड़कर अग्नि संस्कारित 'कूर' नामक नीरस अन्न लाते और मधु घृत के समान प्रसन्नतापूर्वक समभाव से खा लेते। परन्तु निराहार तपस्या करना उनके बस की बात नहीं थी। एक दिन चातुर्मासिक पर्व के दिन आचार्यश्री ने समस्त संघ को तप की प्रबल प्रेरणा दी। चतुर्विध संघ में विभिन्न प्रकार की तपस्याएं हो रही थीं। उपवास तो सबके ही थे। परन्तु कूरगडूक मुनि इस प्रतीक्षा में बैठे थे कि व्याख्यान पूरा हो तो मैं भिक्षा के लिए जाऊँ। आचार्यश्री से गोचरी जाने की आज्ञा माँगने गये तो उन्होंने बहुत डॉटा-फटकारा, किन्तु उसे समभाव से, शान्तभाव से सहन कर लिया। अन्य मुनि भी उसे झिड़कते रहते। परन्तु वे सबको विनयपूर्वक उत्तर देकर अपनी गलती स्वीकार लेते। अपमान का कड़वा बूंट पीकर भी शान्त थे। गोचरी गये। कूर से पात्र भरकर लाये। गुरुजी को आहार दिखाया तो वे भी कुपित हुए। भिक्षापात्र लेकर वे एक ओर गये। प्रमार्जन करके बैठे। पात्र सामने रखा! अपने दोषों पर चिन्तन स्फुरित हुआ-मैं आहार का इतना गुलाम ! मेरे कारण आचार्यश्री को कष्ट १. देखें-इलायचीकुमार का वृत्तान्त आख्यानकमणिकोष, उपदेशपाला तथा जैनकथा कोष (मुनि छत्रमल) में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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