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* २६६ * कर्मविज्ञान : भाग ९ *
गौतम स्वामी जैसी सर्वाक्षरसन्निपाती, चार ज्ञान के धारक भगवान महावीर के पट्ट शिष्य को केवलज्ञान प्राप्त होने में इतना दीर्घकाल क्यों लगा ?
इसका एक समाधान तो ऊपर दिया जा चुका है, जब भी मोहकर्म ( राग-द्वेष - कषायादि) सर्वथा क्षीण हो जायेगा, वह व्यक्ति पूर्व जीवन में चाहे कैसा भी रहा हो, उसे वर्तमान में स्वभावों में रमण के कारण मोहादि चार घातिकर्मों का सर्वथा क्षय होते ही केवलज्ञान हो जाता है । केवलज्ञान जाति-पाँति, धर्म-सम्प्रदाय, वेश-भूषा, भाषा, राष्ट्र, प्रान्त आदि नहीं देखता । वह देखता हैकषायों का सर्वथा क्षय, मोह की सर्वथा क्षीणता ।
दूसरा समाधान यह है कि ( अनन्त ज्ञान ), अनन्त दर्शन, अनन्त अव्याबाध सुख और अनन्त आत्म-शक्ति ये आत्मा के निजी गुण हैं। ये कहीं बाहर से ये उपलब्धियाँ प्राप्त होती हैं, लानी पड़ती हैं या किसी देवी-देव, शक्ति या भगवान, परमात्मा आदि से प्राप्त होती हैं, ऐसा भी नहीं है। अपितु तथ्य यह है कि ये . शक्तियाँ आत्मा की स्वयं की हैं, स्वयं आत्मा में हैं, परन्तु इन चार घातिकर्मों से ये चारों शक्तियाँ आवृत हो रही थीं। जिन व्यक्तियों ने अपने प्रबल पुरुषार्थ से इन सुषुप्त आवृत, आत्मिक गुणों को जाग्रत एवं अनावृत कर लिया, उनको वह केवलज्ञान प्रकट हो गया, बाहर में प्राप्त हो गया। निष्कर्ष यह है कि धातिकर्म चतुष्टयजनित आवरण दूर होते हैं, ये शक्तियाँ निरावरण होकर अपने सहज स्वाभाविक रूप में प्रगट उद्धारित हो जाती हैं। शास्त्रीय भाषा में कहें तो शुक्लध्यान के प्रथम पाद ( पृथक्त्व - वितर्क सविचार) को लाँघकर द्वितीय पाद ( एकत्व - वितर्क अविचार) में पहुँच जाता है, तब पहले पाद में मोहकर्म का और दूसरे पाद में शेष तीन घातिकर्मों का क्षय कर डालता है । फिर तेरहवें गुणस्थान में पहुँचकर सयोगी केवली हो जाता है । '
तीसरा समाधान है - केवलज्ञान प्राप्त होने के विचित्र और विभिन्न उपाय हैं, इसलिए विभिन्न साधकों ने विभिन्न उपायों से मार्गों से सावधानीपूर्वक चलकर उसे प्राप्त किया और कर सकते हैं।
पासत इलायचीकुमार को केवलज्ञान कैसे
हुआ ?
इलायची कुमार क्या था ? केवलज्ञान प्राप्त होने से पूर्वकाल तक वह भोगासक्त एवं रूपासक्त व्यक्ति की तरह एक नट- कन्या रूप में मोहित - आसक्त था । उसे प्राप्त करने के लिए उसने नाट्यकला भी सीखी। परन्तु एक दिन इलायचीकुमार ऊँचे बॉस के संकीर्ण मंच पर चढ़कर अपनी नाट्यकला राजा से पुरस्कार पाने के लिए दिखा रहा था। दुबारा, तिवारा बाँस के मंच पर चढ़ने पर भी राजा प्रसन्न नहीं
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४७.१. सू. ६९, विवेचन ( आ. प्र. स. व्यावर). पृ. २२५
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