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* मोक्ष की अवश्यम्भाविता का मूल : केवलज्ञान: क्या और कैसे-कैसे ? * २६५ *
गणधर गौतम स्वामी को रागभाव दूर करने का संकेत
गणधर गौतम स्वामी के अनेक शिष्यों तथा उनके बाद दीक्षित हुए कई साधु-साध्वियों को केवलज्ञान प्राप्त हुआ देखकर उनका मन खिन्न रहा करता था । भगवान महावीर से यह बात छिपी नहीं थी । भगवान महावीर द्वारा गौतम स्वामी को क्षणमात्र भी प्रमाद न करने का उत्तराध्ययन में उपदेश भी है, फिर भी गौतम स्वामी का भगवान के प्रति प्रशस्तराग, भक्तिराग मिटता नहीं था । 'भगवतीसूत्र' (श. १४, उ. ७) में ऐसा उल्लेख है कि एक बार भगवान महावीर ने गौतम स्वामी को सम्बोधित करके (आश्वासन देते हुए ) कहा - गौतम ! तू मेरे साथ चिर-संश्लिष्ट (चिरकाल से स्नेह से बद्ध ) है, तू मेरा चिरसंस्तुत (चिरकाल से स्तुति - भक्ति करने वाला) भी है, मेरे साथ चिर-परिचित भी है, चिरजुषित (चिरकाल से सेवित या प्रीत) भी है, चिरकाल से तू मेरा अनुगामी ( अनुयायी) है, चिरकाल से अनुवृत्ति (तेरी वृत्ति मेरे अनुकूल रही) है। ( इस कारण तेरा मेरे प्रति प्रशस्तराग-भक्तिराग है) हे गौतम ! इससे पूर्व के ( अनन्तर देवलोक ) देव भव में, तदनन्तर मनुष्य-भव में भी (स्नेह-सम्बन्ध रहा है), अतः इससे अधिक क्या कहूँ ! इस भव में मृत्यु के पश्चात् इस शरीर के छूट जाने पर इस मनुष्य-भव से च्युत होकर हम दोनों तुल्य (एक सरीखे ) और एकार्थ (एक ही प्रयोजन वाले अथवा एक ही लक्ष्य-सिद्धि क्षेत्र में रहने वाले ) तथा विशेषतारहित (समान) तथा किसी प्रकार की भिन्नता से रहित हो जायेंगे।
इस पाठ से भी स्पष्ट है कि जब तक किंचित् राग-द्वेष या कषायादि रहेगा, तब तक केवलज्ञान प्रकट नहीं हो सकेगा । '
इस दृष्टि से केवलज्ञान की पहली शर्त है - मोहकर्म का सर्वथा क्षीण होना ।
केवलज्ञान दीर्घकालिक साधकों को दीर्घकाल में और अल्पकालिक साधकों को अल्पकाल में क्यों ?
इस सम्बन्ध में एक प्रबल शंका बार-बार मन को कुरेदती है कि इलायचीकुमार, कूरगडूक, माषतुष, अर्जुनमालाकार ( मुनि), अरणिक मुनि, दृढ़प्रहारी, केशरी (सामायिक साधक) मुनि, चण्डरुद्राचार्य तथा उनके एक नवदीक्षित शिष्य आदि कतिपय साधक को, जो अपने पूर्व जीवन में हिंसादि परायण, विलासी, मन्द बुद्धि, चारित्र-भ्रष्ट, चोर, क्रोधी आदि रहे हैं, दीक्षा लेने के साथ ही अथवा दीक्षा न लेने पर भी झटपट केवलज्ञान कैसे प्राप्त हो गया ? और
१. ( क ) देखें - उत्तराध्ययन का १० वाँ दुमपत्तमं नामक अध्ययन गौतम स्वामी को अप्रमत्त रहने का उपदेश
(ख) भगवतीसूत्र, खण्ड ३, अ. १४, उ. ७, सू. १, विवेचन ( आ. प्र. स., ब्यावर )
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