________________
* २६४ * कर्मविज्ञान : भाग ९ *
अंश का एक साथ क्षय हो जाता है। वे तीन (घाति) कर्म ये हैं-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तरायकर्म।
'उत्तराध्ययनसूत्र' में कहा गया है-“(केवलज्ञान प्राप्त करने वाला साधक) सर्वप्रथम पूर्वानुपूर्वी के अनुसार २८ प्रकार के मोहनीय कर्म (चारित्रमोह के सोलह कषाय, नौ नोकषाय और दर्शनमोह के तीन यों २८ प्रकार के मोहकर्म) को समूल नष्ट करता है, (तत्पश्चात्) पाँच प्रकार के ज्ञानावरणीय, नौ प्रकार के दर्शनावरणीय और पाँच प्रकार के अन्तराय कर्म-इन तीनों कर्मों को एक साथ क्षय कर डालता है।" ___तात्पर्य यह है कि जब तक मोहनीय कर्म का-मोहकर्म की किसी भी प्रकृति का थोड़ा-सा अंश रहेगा, वहाँ तक केवलज्ञान प्रकट नहीं हो सकता। राग और द्वेष या कषाय और मिथ्यात्व ये दोनों मोहकर्म के बीज हैं-स्रोत हैं, ये दोनों जहाँ भी जिस व्यक्ति में भी रहेंगे, चाहे राग प्रशस्तरूप में ही क्यों न हों, कषाय चाहे प्रशस्तरूप में भी क्यों न हो, केवलज्ञान में प्रबल बाधक हैं। भरतचक्री का शरीरमोह नष्ट होते ही केवलज्ञान प्रगट हो गया
भरत चक्रवर्ती अपने पास चक्रवर्तित्व की ऋद्धि होते हुए भी, सब प्रकार के सुखभोग के साधन होते हुए भी निर्लेप रहते थे, फिर भी अभी तक उनका शरीर के प्रति रागभाव नहीं छूटा था, किन्तु जब शीशमहल में शीशे के सामने खड़े होकर अपने शरीर के अंग-प्रत्यंगों और वस्त्राभूषणों को देख रहे थे, तभी अंगुली में से अँगूठी नीचे गिर पड़ी। उससे रिक्त अंगुली बेडौल लगने लगी। अतः भरत जी ने एक-एक करके सारे आभूषण उतारे। चिन्तन स्फुरित हुआ-'ओह ! शरीर की कितनी दयनीय दशा है ! जो शरीर नाशवान् है, एक दिन अवश्य छूटने वाला है। उस पर मोह रखने से तो पुनः-पुनः जन्म-मरण करना पड़ेगा।' यों आत्मा के निज गुणों और स्वभाव में रमण करते-करते उनका मोह नष्ट हो गया। मोह नष्ट होते ही मोहनीय कर्म के क्षय के साथ-साथ शेष तीनों घातिकर्म भी नष्ट हो गये और उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया।
१. (क) तत्त्वार्थसूत्र (हिन्दी विवेचन सहित) (उपाध्याय केवल मुनि) से भाव ग्रहण, पृ. ४६२
(ख) तत्त्वार्थसूत्र, अ. १0, सू. १, विवेचन, पृ. ४६२-४६३ (ग) खीणमोहस्स णं अरहओ तओ कम्मंसा जुगवं खिजति, तं. जहा-णाणावरणिज्जं. दंसणावरणिज्जं अंतराइयं।
-स्थानांगसूत्र, स्था. ३, उ. ४, सू. २२६ (घ) तप्पढमयाए जहाणुपुव्वीए अट्ठावीसइ-विहं मोहणिज्ज • कम्मं उग्घाएइ, पंचविहं
नाणावरणिज्जं, नवविहं दंसणावरणिज्ज, पंचविहं अंतराइयं, एए तिन्नि वि कम्मं जुगवं से खवेइ।
-उत्तरा. २९/७१ २. देखें-त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र में भरत चक्रवर्ती का वृत्तान्त
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org