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________________ * ३८ * कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु * के तीव्र, मन्द अध्यवसायों (भावों = परिणामों) की दृष्टि से कर्म-पर्यायों की गणना करने लगे तो एक-एक कर्म की उत्तरप्रकृतियों के असंख्य पर्याय हो जाते हैं। कर्मविज्ञान-पुरस्कर्ता अनन्त ज्ञानादि चतुष्टय-निधान वीतराग आप्त परम आत्माओं ने कर्म के उन असंख्य पर्यायों के फलों का दिग्दर्शन जैनागमों में यत्र-तत्र किया है। उन-उन कर्म-पर्यायों के फलों का निर्देशन करने के साथ ही प्रत्येक कर्म की मूलप्रकृति के अनुसार फल-विपाकों की तथा उनके विशिष्ट अनुभावों की चर्चा भी आगमों में की है। कर्म-महावृक्ष के इस सामान्य फलों की चर्चा करने के बाद भगवान महावीर और गणधर गौतम स्वामी के विभिन्न पाप-पुण्यकर्मों के विशिष्ट फलों की गौतमपृच्छा के रूप में प्रसिद्ध चर्चा भी कर्मविज्ञान ने की है। जिज्ञासु और मुमुक्षु व्यक्ति यदि उन कर्मफल सूत्रों पर चिन्तन-मनन (विपाक-विचय) करें तो अनुमान है कि उनके अन्तःकरण में कर्मों के आस्रव और बन्ध के प्रति विरक्ति, विरति, जागृति हो सकती है। विभिन्न कर्मफल : विशेष नियमों से बँधे हुए जैसे वनस्पति जगत् में पेड़-पौधों और बेलों की पृथक्-पृथक् जाति एवं प्रकृति (द्रव्य) तथा विभिन्न क्षेत्र (भूमि या प्रदेश) और काल (विभिन्न ऋतुओं) के अनुसार एवं बीजारोपण या वृक्षारोपणकर्ता के भाव, कौशल, संरक्षण-संवर्धन के विवेक के नियमों के अनुसार परिपाक (परिपक्व) होने पर उनमें चित्र-विचित्र प्रकार के फल लगते हैं या फसल होती है। इसी प्रकार कर्मफलों की विविधता एवं विचित्रता भी कर्ता के क्रोधादि या राग-द्वेषादि तीव्र-मन्दभावों, विभिन्न प्रकार के क्षेत्रों, विभिन्न प्रकार के काल या बन्ध स्थिति (कालावधि) तथा विभिन्न प्रकार के कर्मों की मूल-उत्तरप्रकृति के नियमों के अनुसार होती है। जैन-कर्मविज्ञान ने जैनदर्शन, आगम, मनोविज्ञान, अध्यात्मविज्ञान, योगदर्शन आदि समस्त अध्यात्म विद्याओं के परिप्रेक्ष्य में गहराई से चिन्तन-मनन करके कर्मों के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव आदि के नियमों के अनुसार विभिन्न प्रकार के कर्मों के पृथक्-पृथक् विचित्र फलों (कर्मविपाकों) का निर्देश किया है। ____ अन्य धर्म और दर्शन जहाँ ईश्वर के हाथों में कर्मफल सौंपकर निश्चिंत हो जाते हैं, वहाँ जैनदर्शन ने नियम के हाथों में कर्मफल-व्यवस्था सौंपी है। कर्मफल-विषयक ये सब नियम अकाट्य, स्वयंकृत, प्राकृतिक और सार्वभौम हैं। अतः कर्मफल के नियमन में बाहर से कृत, आरोपित व्यवस्था या किसी नियंता की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। कर्मफल-विषयक इन नियमों की छानबीन करने वाले के मन में फल को समभाव से भोगने का बल, आश्वासन एवं सन्तोष मिलता है। जैनदर्शन ने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव, इन चार दृष्टियों के आधार पर नियमों का अन्वेषण किया है। कर्मविज्ञान-विशेषज्ञों ने बन्ध आदि दशविध कारणों के आधार पर कतिपय नियमसूत्रों का निर्माण किया। द्रव्यदृष्टि से शुभ-अशुभ कर्मफल वही भोगता है, जिसने उक्त कर्मबन्ध किया है, क्योंकि कर्मबन्ध करने वाला ही उक्त कर्म का फल भोगने तथा उसका क्षय, क्षयोपशम, उपशम या संवर करने का अधिकारी है। द्रव्यदृष्टि से कर्मफल का एक फलितार्थ यह भी है कि एक कर्म का फल दूसरा कर्म नहीं दे सकता। एक नियम यह भी है कि सजातीय कर्मप्रकृति का (कुछेक अपवादों के सिवाय) सजातीय उत्तरकर्मप्रकृति में ही संक्रमण, रूपान्तरण, मार्गान्तरीकरण या उदात्तीकरण हो सकता है। प्रज्ञापनासूत्र' में प्रत्येक कर्म के फल (विपाक) का विचार करते समय विपाक-योग्य होने के सोलह उपनियम बताये गए हैं (१) बद्ध, (२) स्पृष्ट, (३) बद्ध-स्पर्श-स्पृष्ट, (४) संचित, (५) चित, (६) उपचित, (७) आपाक-प्राप्त, (८) विपाक-प्राप्त, (९) फल-प्राप्त, (१०) उदय-प्राप्त, (११-१२-१३) (कर्म-बन्धन-बद्ध) जीव के द्वारा कृत, निष्पादित और परिणत, तथा (१४-१५-१६) स्वयं उदीर्ण, पर के द्वारा उदीरित, या स्व-पर दोनों द्वारा उदीयमाण। इसके अतिरिक्त कर्मों के उदय (उदीर्ण) होने के पाँच आलम्बन इसी शास्त्र में बताए हैं-(१) गति को प्राप्त करके, (२) स्थिति को प्राप्त करके, (३) भेद को प्राप्त करके, (४) पुद्गल को प्राप्त करके, एवं (५) पुद्गल-परिणामों को प्राप्त करके। इस प्रकार प्रत्येक कर्म के विपाक (अनुभाव) के नियमों का ज्ञाता भी विपाक को जान-समझकर उसे परिवर्तित या निरुद्ध कर सकता है। इस तथ्य को कतिपय शास्त्रीय उदाहरण देकर समझाया गया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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