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* कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु * ३७ *
भोगता है. उसके वदले ईश्वर या अन्य कोई शक्ति या व्यक्ति किसी दूसरे को पुण्य या पाप का फल न तो दे-ले सकता है, न ही दूसरे के कर्मफल को दूसरा भाग सकता है. और न उसमें भाग वटा सकता है। उत्तराध्ययन, मूत्रकृतांग, आचारांग आदि शास्त्रों के प्रमाण द्वारा यह सिद्ध होता है कि जो व्यक्ति जैसा भी अच्छा या बुरा कर्म करता है, वही उस कर्म का फल भोगता है। यदि कर्म और उसके फल का विनिमय हो सकता. तब तो रोगी, दुःखी, पीड़ित आदि के रोग, दुःख या पीड़ा को उसके स्व-जन अवश्य बाँट लेते और उसे सुखी कर देते. पर ऐसा संभव नहीं। अज्ञानी मानव इस तथ्य को न समझकर तथाकथित अपनों के लिए विभिन्न कर्म करता है, परन्तु उस कर्म का फल भोगने वे हिस्सेदार नहीं होते। यह बात जरूर है कि कर्मफल मिलना एक बात है, मगर कर्मफल का वेदन (संवेदन) पृथक्-पृथक् होता है। अनाथी मुनि का जीवन-वृत्त इस सत्य का ज्वलन्त उदाहरण है। कर्मफल : यहाँ या वहाँ ? अभी या बाद में ?
जैन-कर्मविज्ञान से तथा वैदिक स्मृतियों से. महाभारत आदि पुराणों से, जैनशास्त्रों से एवं विविध महापुरुषों के वचनों एवं सर्वसाधारण व्यक्तियों के अनुभव से यह तो स्वतः सिद्ध हो जाता है, जो जैसा कर्म करता है, उसे उस कर्म का फल देर-सबेर से मिले विना नहीं रहता। परन्तु जैनदर्शन इस विषय में थोड़ा-सा संशोधन प्रस्तुत करता है-यदि शुभ या अशुभ कर्म निकांचित रूप से न बँधा हो तो उसके उदय में आने से पूर्व जब तक वह कर्म सत्ता में पड़ा रहता है, तब तक कर्मकर्ता के अध्यवसायों से तथा तदनुसार आचरण से उवर्तना और अपवर्तना के रूप में उक्त बद्ध शुभ कर्म का अशुभ में और अशुभ कर्म का शुभ में परिवर्तन भी हो सकता है, तथा अपने सजातीय कर्म के रूप में (कुछ अपवादों के सिवाय) संक्रमण भी हो सकता है. उस कर्म की प्रकृति और स्थति में भी न्यूनाधिकता या तीव्रता-मन्दता हो सकती है। इसके सिवाय भी उन अनिकाचिंत रूप से बद्ध कर्मों के उदय. में आने से पूर्व ही उदीरणा करके भी फल भोगा जा सकता है। इसके अतिरिक्त कतिपय सुधीर्ण या दुश्चीर्ण इहलोक में बद्ध कर्मों का फल इहलोक में भी भोगा जाता है, कई इहलोक में बद्ध कर्मों का फल परलोक में भोगा जाता है. कतिपय परलोक में बद्ध शुभाशुभ कर्मों का फल इहलोक में भागा जाता है और कई परलोक में बद्ध शुभाशुभ कर्मों का फल परलोक में भी भोगा जाता है। इसी तथ्य को कतिपय आधुनिक तथा ऐतिहासिक और शास्त्रीय घटनाओं से भी सिद्ध करके बताया है। निष्कर्प यह है कि चाहे देव हों, मनुष्य हों. नारक हों या तिर्यञ्च; सबको सदैव ज्ञानावरणीयादि शुभाशुभ कर्मों का विपाक (फल) इस लोक में या परलोक में (उसी भव में या अगले भव या भवों में). एक बार या सैकड़ों वार, उसी रूप में या अन्य रूप में वेदन करते (भोगते) हैं, संसार में परिभ्रमण करते हुए जीव आगे-से-आगे सुकृत और दुष्कृत कर्म का वन्ध और वेदन करते रहते हैं। वैसे देखा जाए तो कर्म का मुख्य (अनन्तर) फल तो कर्मास्रव एवं कर्मबन्ध के रूप में तत्काल मिलता है, किन्तु परम्परागत फल यानी कर्मफल का वेदन (भोगना) इस जन्म या अगले जन्म या जन्मों में मिलता है। कर्म. कर्मफल और कर्मफलभोग. इन तीनों का अन्तर समझ लेना जरूरी है, इससे एकान्त तत्काल-फलवादियों या कर्मफल-निषेधकों के मत का निराकरण हो जाता है। कर्म महावृक्ष के सामान्य और विशेष फल
जैसे एक विशाल वृक्ष की अनेक शाखा-उपशाखाएँ तथा असंख्य पत्र-पुष्प होते हैं तथा उसके फल भी अगणित होते हैं। कर्मविज्ञान के अनुसार-जीव के तीव्र-मन्दादि कपायों और विविध योगों (मन-वचन-कायाजनित प्रवृत्तियों) से विविध स्पन्दन. कम्पन, हलचल, क्रिया, प्रतिक्रिया आदि की अपेक्षा से कर्म-महावृक्ष की अगणित शाखाएँ हो जाती हैं। फिर उनकी मुख्य ८ मूलप्रकृतियों तथा १४८ या १५८ उत्तरप्रकृतियों की दृष्टि से अनेक प्रकार हो जाते हैं। तदनन्तर उनके एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय जीव और पंचेन्द्रिय में भी नारक, तिर्यंच. मनुष्य, देव इन कुल ५६३ प्रकार के जीवों की अपेक्षा से तथा उनके भी चतुर्दश गुणस्थानों की अपेक्षा से और फिर उनके भी गति. इन्द्रिय. काय. योग, कपाय, ज्ञान-अज्ञान, भव्य-अभव्य, संज्ञी-असंज्ञी. आहार, संयम. दर्शन, लेश्या आदि १४ मार्गणाद्वारों की अपेक्षा से कर्म के हजारों प्रकार हो जाते हैं। तत्पश्चात् उन हजारों कर्म-प्रकारों के भी प्रत्येक जीव की प्रतिसमय की बन्ध, उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण, सत्ता, उदय, उदीरणा, उपशमन, निधत्ति और निकाचना, इन दस अवस्थाओं
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