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* ३६ * कर्म - सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु
कर्म अपना फल कैसे देते हैं ?
कर्म- पुद्गल, जड़, अजीव, चेतनारहित एवं ज्ञानशून्य हैं, वे अपना फल कैसे दे सकते हैं ? इस प्रश्न का जैन-कर्मविज्ञान ने विविध प्रमाणों और मुक्तियों के आधार पर समाधान देते हुए कहा - कर्म ज्ञानशून्य अवश्य हैं, शक्तिशून्य नहीं । आहार ग्रहण करने के बाद उसकी समस्त पाचनादि प्रक्रिया की तरह, अथवा शरीर में जहाँ कोई रोग है, वहाँ उसकी दवा स्वतः पहुँचकर रोग को नष्ट करने की तरह जड़ कर्मपुद्गल चेतन के द्वारा कृतकर्म से आकृष्ट और श्लिष्ट होने के पश्चात् स्वयं फलदान का कार्य करते हैं । मद्य और दूध की तरह ज्ञानशून्य होने पर भी शरीर पर पृथक्-पृथक् प्रभाव डालते हैं. वैसे ही विविध शुभ-अशुभ, तीव्र, मध्यम मन्दरूप से बद्ध कर्म भी अपना प्रभाव आत्मा (जीव ) पर डालता है। ज्ञानशून्य मिर्च जीव से सम्पर्क होने पर मुँह जला देती है, चीनी मीठा कर देती है, वैसे ही विविध कर्म-परमाणुओं का चेतन के साथ सम्पर्क होने पर एक विशिष्ट कर्मफल- प्रदान शक्ति प्रगट होती है। वैज्ञानिकों द्वारा आविष्कृत रेडियो, टी. वी., टेलीप्रिंटर, बैरोमीटर, थर्मामीटर, कम्प्युटर आदि हजारों पदार्थों में जड़-परमाणुओं की विलक्षण-शक्ति का चमत्कार देखा जाता है, वैसे ही कर्म-परमाणुओं में जीव में कृत कर्मानुसार फल देने की शक्ति है, इससे कोई भी इन्कार नहीं कर सकता है । परन्तु इन जड़ पदार्थों या कर्म-परमाणुओं की शक्ति का प्रकटीकरण आत्म-चेतना का सम्पर्क होने पर ही होता है। अतः कर्म अपने आप ही जीव को अपने परिणामों द्वारा बद्ध कर्म का फल यथासमय दे देता है। उसके लिए अन्य नियामक की आवश्यकता नहीं है। कर्म में कर्मफलदात्री शक्ति का आधार है - कार्मणशरीर । इसलिए आत्मा के योगत्रय तथा राग-द्वेषादि कापायिक भावों के निमित्त से जब कर्मवर्गणा के परमाणु- पुद्गल कर्मरूप में परिणत होकर आत्मा से सम्बद्ध होते हैं, तब प्रकृति, प्रदेश, अनुभाग और स्थिति के रूप में चार प्रकार की बन्ध-शक्ति स्वतः उत्पन्न हो जाती है, फिर उन बद्ध कर्म - परमाणुओं में फल देने की शक्ति निर्मित होती है, वही शक्ति कालपरिपाक होने पर (उदय में आकर ) आत्मा को सुख-दुःख के रूप में उन कर्मों का फल स्वतः दे देती है। फल देने (भुगवाने) के पश्चात् वह शक्तिविहीन कर्म स्वतः आत्मा से पृथक् हो जाता है।
कर्मफल : वैयक्तिक या सामूहिक ?
जैन-कर्मविज्ञान की यह मान्यता है - एक व्यक्ति के शुभ या अशुभ कर्म का फल कभी-कभी उस व्यक्ि के साथ-साथ समग्र परिवार, जाति, सम्प्रदाय, वर्ग, संस्था या राष्ट्र को भी भोगना पड़ता है। समवायांगसूत्र में २५ क्रियाओं में एक सामुदानिक (सामुदायिक) क्रिया बताई है, जिसका अर्थ है-समूहरूप में पापबन्धक अशुभ या पुण्यबन्धक शुभ क्रिया करना। किसी घटना, व्यक्ति या परिस्थिति को देखकर कई व्यक्ति व्यक्तिगत या समूहगत राग-द्वेष- कषायाविष्ट होकर प्रतिक्रिया करते हैं। वे बद्ध कर्म व्यक्तिगत या समूहगत होने से उनका फल भी व्यक्ति या समूह को भोगना पड़ता है। एक साथ कर्मबन्ध बाँधने वाले व्यक्ति सामूहिक रूप से भी कर्मफल भोगते हैं। यह तथ्य कतिपय उदाहरण द्वारा समझाया गया है। निष्कर्ष यह है कि जैनदर्शन में कारण दो प्रकार के बताए गये हैं- उपादानकारण और निमित्तकारण । उपादान की दृष्टि से कर्मकर्त्ता व्यक्ति स्वयं उपादान होता है, वह स्वयं हो कर्म करता है, स्वयं ही उसका फल भोगता है; किन्तु निमित्तकारण वैयक्तिक नहीं होता है. वह सामूहिक या सामाजिक होता है। अतः एक व्यक्ति के द्वारा किये गये इष्ट-अनिष्ट किसी कर्म के कारण आया हुआ सुख-दुःखरूप परिणाम सामूहिक होता है, किन्तु उक्त समूह में संवेदना सबकी व्यक्तिगत और पृथक्-पृथक् होती है। इसे ही व्यवहार की भाषा कह सकते हैंआचरण व्यक्तिनिष्ठ, व्यवहार समूहनिप्ट; तथैव क्रिया वैयक्तिक एक, प्रतिक्रिया सामूहिक अनेक । वैयक्तिक कर्म में कर्मफल का संक्रमण नहीं, सामूहिक कर्मों में ही कर्मफल का संक्रमण होता है।
क्या कर्मफल- भोग में विनिमय या संविभाग है ?
जिस प्रकार एक व्यक्ति अपने द्वारा पठित विद्या (ज्ञान) का लाभ दूसरे व्यक्ति को नहीं दे सकता, न ही बिना मेहनत किये एक को प्राप्त ज्ञान दूसरे को मिल सकता है, इसी प्रकार अपने द्वारा कृतकर्म का फल न तो व्यक्ति दूसरे को दे सकता है और न ही दूसरे के कर्म का फल स्वयं ले सकता है। स्वकृत कर्म के लिए व्यक्ति या समूह स्वयं ही जिम्मेवार है। वही व्यक्ति या समूह स्वयं ही स्वकृत शुभाशुभ कर्म का फल
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