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* मोक्ष की अवश्यम्भाविता का मूल : केवलज्ञान : क्या और कैसे-कैसे? * २५९ *
ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय, इन तीनों घातिकर्मों की भी सभी प्रकृतियों का क्षय कर देता है। तत्पश्चात् कर्मरज को बिखेरने वाले अपूर्वकरण में प्रविष्ट (अवधिज्ञानी साधक) को अनन्त, अनुत्तर, व्याघातरहित, आवरणरहित (निरावरण), कृत्स्न (पूर्ण), प्रतिपूर्ण एवं श्रेष्ठ केवलज्ञान और केवलदर्शन (एक साथ) उत्पन्न होते हैं। यह उस चारित्रात्मा अवधिज्ञानी के प्रशस्त अध्यवसायों का ही प्रभाव है कि वह पहले नरकादि चारों गतियों के भविष्यत्कालभावी अनन्त भवों से अपनी आत्मा को वियुक्त कर लेता है। फिर गतिनामकर्म की नरकादि चारों गतिरूप उत्तरप्रकृतियों के कारणभूत अनन्तानुबन्धी आदि चारों प्रकार के कषायों के १६ चारित्रमोहनीय की प्रकृतियों का भी क्षय कर डालता है। कषायों का समूल क्षय होते ही ज्ञानावरणीयादि चार घातिकर्मों का भी क्षय हो जाता है। घातिकर्मों का क्षय होते ही अनन्त, अव्याघात, निरावरण, परिपूर्ण केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त हो जाता है। केवलज्ञान प्राप्त होने पर सर्वकर्म क्षयरूप मोक्ष की प्राप्ति तो अवश्यम्भावी है। असोच्चा केवली द्वारा उपदेश, प्रव्रज्या-प्रदान, सर्वकर्ममुक्ति तथा
उनके निवास तथा संख्या के विषय में ‘भगवतीसूत्र' में आगे असोच्चा केवली के सम्बन्ध में प्रश्न किया गया है-क्या असोच्चा केवली केवलज्ञानी होने के पश्चात् अपने शिष्यों को केवलिप्रज्ञप्त धर्म (शास्त्र का अर्थ समझाकर) ग्रहण कराते हैं ? अथवा भिन्न-भिन्न करके प्रज्ञापित करते (समझाते) हैं ? या उपपत्ति कथनपूर्वक प्ररूपण करते हैं ? इसके उत्तर में भगवान ने कहा-“गौतम ! यह अर्थ समर्थ (शक्य) नहीं है। वे (केवल) एक ज्ञात (उदाहरण) के अथवा एक (व्याकरण) प्रश्न के उत्तर के सिवाय (धर्म का) अन्य उपदेश नहीं देते।” तदनन्तर प्रश्न किया गया है-क्या असोच्चा केवली (किसी को) प्रव्रजित करते हैं या मुण्डित करते हैं ? इसका उत्तर भी यों दिया गया है-गौतम ! यह अर्थ (बात) भी शक्य नहीं है। किन्तु वे उपदेश करते (कहते) हैं (कि तुम अमुक के पास प्रव्रज्या ग्रहण करो)। फिर असोच्चा केवली के सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होने के विषय में पूछा गया तो भगवान ने कहा-हाँ, वे अवश्य ही सिद्ध-बुद्ध-मुक्तसर्वदुःखरहित होते हैं। आगे बताया कि असोच्चा केवली एक समय में कम से कम एक, दो या तीन होते हैं और अधिक से अधिक दस होते हैं। वे ऊर्ध्वलोक,
१. (क) भगवतीसूत्र, श. ९. उ. ३१, सू. २६. विवेचन (आ. प्र. स., व्यावर), - पृ. ४४७-४४८ (ख) मस्तकसूचि-विनाशे, तालस्य यथा ध्रुवो भवति विनाशः। तद्वत् कर्मविनाशोऽपि, मोहनीयक्षये नित्यम्॥
-भगवतीसूत्र अभय. वृत्ति, पत्र ४३६
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