SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 412
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * २५८ * कर्मविज्ञान : भाग ९ * (भूतपूर्व विभंगज्ञानी साधक) के मिथ्यात्व के पर्याय क्रमशः क्षीण होते-होते और सम्यग्दर्शन के पर्याय क्रमशः बढ़ते-बढ़ते वह विभंग नामक अज्ञान सम्यक्त्वयुक्त होते ही तत्काल अवधिज्ञान के रूप में परिवर्तित हो जाता है। ___ उक्त अवधिज्ञानी पिछली तीन विशुद्ध (प्रशस्त) लेश्याओं में होता है, उसमें मति, श्रुत, अवधि, ये तीन सम्यग्ज्ञान होते हैं, वह सयोगी यानी तीनों योगों से युक्त होता है। सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन दोनों उपयोगों से मुक्त होता है। (वह भविष्य में केवलज्ञानी होगा, इस अपेक्षा से) उसका संहनन वज्रऋषभनाराच होगा और संस्थान तो छह प्रकार के संस्थानों में से कोई एक हो सकता है। उसकी ऊँचाई जघन्य सात हाथ (रनि) और उत्कृष्ट ५00 धनुष की होती है। उसका आयुष्य जघन्य साधिक आठ वर्ष और उत्कृष्ट पूर्वकोटि वर्ष होता है। वह (अवधिज्ञान के रहते) सवेदी होता है। वह स्त्रीवेदी तथा नपुंसकवेदी नहीं होता। या तो पुरुषवेदी होता है या पुरुष-नपुंसकवेदी (कृत्रिम नपुंसक) होता है। (अभी वह) कषाययुक्त यानी संज्वलन के क्रोध, मान, माया और लोभ; इन चार कषायों से युक्त होता है। उसमें असंख्यात प्रशस्त अध्यवसाय होते हैं, अप्रशस्त नहीं। क्योंकि विभंगज्ञान से अवधिज्ञान की प्राप्ति अप्रशस्त अध्यवसाय वाले को नहीं होती। पूर्वोक्त अवधिज्ञानी अपने बढ़ते हुए प्रशस्त अध्यवसायों से, अनन्त नैरयिकभवग्रहणों से, अनन्त तिर्यञ्चयोनिक-भवग्रहणों से, अनन्त देव-भवों से तथा अनन्त मनुष्य-भवग्रहणों से अपनी आत्मा को विसंयुक्त (विमुक्त = वियुक्त) कर लेता है। जो ये नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति और देवगति नामक नामकर्म की चार उत्तरप्रकृतियाँ हैं, उन प्रकृतियों के आधारभूत अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानी और प्रत्याख्यानी क्रोध, मान, माया और लोभ का क्षय करके क्रमशः संज्वलन के क्रोधादि चार कषायों को भी क्षय कर डालता है। तत्पश्चात् (क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ होकर वह पाँच प्रकार के ज्ञानावरणीय कर्म, नवविध दर्शनावरणीय कर्म, पंचविध अन्तराय कर्म तथा (२८ प्रकार के) मोहनीय कर्म को कहे हुए ताड़-वृक्ष के समान बना देता है। सैद्धान्तिक दृष्टि से मोहनीय कर्म के क्षय हुए बिना शेष तीनों अघातिकर्मों का क्षय नहीं हो सकता, इसी तथ्य को प्रगट करने के लिए यहाँ मूल सूत्र में कहा गया है-“तालमत्थ-कडं च मोहणिज्जं कटु।" इसका भावार्थ यह है कि जिस प्रकार ताड़-वृक्ष के मस्तक का सूचिभेद (सुई से छिन्न-भिन्न) कर देने से वह सारा का सारा वृक्ष क्षीण हो जाता है, उसी प्रकार पहले मोहनीय कर्म का क्षय होने पर शेष घातिकर्मों का क्षय हो जाता है। अतएव पूर्वोक्त अवधिज्ञानी प्रशस्त अध्यवसायी साधक मोहनीय की अवशिष्ट रही हुई समस्त प्रकृतियों का क्षय करके १. (क) भगवतीसूत्र, श. ९, उ. ३१, सू. १४, पृ. ४४२-४४३ (ख) वही, श. ९, उ. ३१, सू. १५-२५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy