________________
* मोक्ष की अवश्यम्भाविता का मूल : केवलज्ञान : क्या और कैसे-कैसे? * २५७ *
सुने बिना ही यावत् क्रमशः आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्यायज्ञान उपार्जित कर सकता है। (११) इसी प्रकार जिस असोच्चा केवली ने केवलज्ञानावरणीय कर्मों का क्षयोपशम किया है, वह केवली आदि से सुने बिना ही केवलज्ञान प्राप्त कर सकता है। इसके विपरीत जिसने तदावरणीय कर्मों का क्षय नहीं किया, वह केवलज्ञान नहीं प्राप्त कर सकता।'
असोच्चा केवली को विभंगज्ञान से अवधिज्ञान और
उससे केवलज्ञान प्राप्त होने की प्रक्रिया असोच्चा केवली के सम्बन्ध में ‘भगवतीसूत्र' (९/३१) में एक प्रश्न और उठाकर उसका समाधान किया गया है-जिस असोच्चा साधक ने केवलज्ञानावरणीय कर्मों का क्षयोपशम या क्षय नहीं किया, क्या भविष्य में उसे केवलज्ञान प्राप्त हो सकता है ? इसके उत्तर में कहा गया है कि भविष्य में जिस असोच्चा साधक को केवलज्ञान प्राप्त होने वाला है, वह विभंगज्ञानादि उपार्जित करता हुआ अमुक-अमुक साधना के पश्चात् केवलज्ञानी हो सकता है। विभंगज्ञान-प्राप्ति से लेकर केवलज्ञान-प्राप्ति तक की प्रक्रिया इस प्रकार है
इस प्रकार के असोच्चा केवली, जिन्हें भविष्य में केवलज्ञान प्राप्त होने वाला है, निरन्तर छठ-छठ (बेले-बेले) का त:कर्म करते हुए सूर्य के सम्मुख बाँहें ऊँची करके आतापना भूमि में आतापना लेते हुए उस जीव (असोच्चा साधक) की प्रकृति भद्रता से प्रकृति की उपशान्तता से स्वाभाविक रूप से ही क्रोधादि कषायों की अत्यन्त मन्दता होने से, अत्यन्त मृदुत्व-सम्पन्नता से, कामभोगों में अनासक्ति से, भद्रता और विनीतता से तथा किसी समय शुभ अध्यवसाय, शुभ परिणाम, विशुद्ध लेश्या एवं तदावरणीय (विभंगज्ञानावरणीय) कर्मों के क्षयोपशम से ईहा, अपोह, मार्गणा और गवेषणा करते हुए विभंग नामक ज्ञान (अज्ञान) उत्पन्न होता है। उक्त समुत्पन्न विभंगज्ञान के द्वारा वह जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग तक और उत्कृष्ट असंख्यात. हजार योजन तक जानता और देखता है। उक्त समुत्पन्न विभंगज्ञान से वह जीवों को भी जानता है और अजीवों को भी। वह पाषण्डस्थ (व्रतधारक), सारम्भी (आरम्भयुक्त), सपरिग्रह (परिग्रही) और संक्लेश पाते हुए जीवों को भी जानता है और (इन दुष्कृत्यों से) विशुद्ध होते हुए जीवों को भी जानता है। तत्पश्चात वह विभंगज्ञानी सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन (सम्यक्त्व) प्राप्त करता है, तदनन्तर श्रमणधर्म पर रुचि करता है। फिर वह सम्यक्चारित्र अंगीकार करता है। चारित्र अंगीकार करने के साथ स्वलिंग (साधुवेश) धारण करता है। तब उस
१. भगवतीसूत्र, श. ९, उ. ३१, सू. १-१३ का सार, विवेचन (आ. प्र. स., ब्यावर),
पृ. ४३३-४४३
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org