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________________ * मोक्ष की अवश्यम्भाविता का मूल : केवलज्ञान : क्या और कैसे-कैसे ? * २५५ * हुए। वे ये हैं- (१) - आदित्ययश, (२) महायश, (३) अतिबल, (४) महाबल, (५) तेजोवीर्य, (६) कार्तवीर्य, (७) दण्डवीर्य, और (८) जलवीर्य ।' अन्यलिंग केवली की प्ररूपणा सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होने के १५ प्रकारों में से एक है - ' अन्यलिंग सिद्धा।' जैनवेश सिवाय अन्य परिव्राजक आदि के वेश में भी सिद्ध होते हैं । जब सिद्ध हो सकते हैं, तो उनका केवली होना अनिवार्य है । फलतः अन्यलिंग (वेश) में भी केवलज्ञानी हो सकते हैं। यद्यपि शिवराजर्षि ने पहले दिशाप्रोक्षक तापस दीक्षा ली थी और - बेले तप करने से उनको विभंगज्ञान हो गया, अतिशयज्ञान का मिथ्या दावा करने से तथा शंका- कांक्षादि के कारण उनका विभंगज्ञान नष्ट हो गया था । अतः बाद में भगवान महावीर की सेवा में पहुँचकर यथार्थ समाधान प्राप्त किया, निर्ग्रन्थ प्रव्रज्या ग्रहण की और साधना करके केवलज्ञान और मोक्ष प्राप्त किया। इसी प्रकार मुद्गल परिव्राजक को भी विभंगज्ञान प्राप्त हुआ, अतिशयज्ञान की घोषणा करने से तथा भगवान महावीर के द्वारा यथार्थ समाधान से शंकित होने से उनका विभंगज्ञान नष्ट हो गया। फिर वे बहुत ही भावनापूर्वक भगवान महावीर की सेवा में पहुँचे। यथार्थ समाधान पाकर निर्ग्रन्थ प्रव्रज्या ग्रहण की और साधना करके केवली बने, सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हुए । ' असोच्चा केवली : स्वरूप तथा तत्सम्बन्धित ग्यारह प्रश्न और समाधान 'भगवतीसूत्र' में सोच्चा केवली और असोच्चा केवली का वर्णन आता है। स्थूलदृष्टि वाला व्यक्ति यही सोच लेता है कि केवल प्रवचन सुनने मात्र से या बिना सुने ही, सिर्फ बाह्य भक्ति कर लेने या नामस्मरण करने मात्र से क्रमशः सोच्चा (श्रुत्वा) और असोच्चा (अश्रुत्वा ) केवली होते होंगे, परन्तु केवली बनना सस्ता सौदा नहीं है, बहुत ही अध्ययन, मनन, चिन्तन और साहसपूर्वक रत्नत्रय की . तथा बाह्याभ्यंतर तपस्या की आराधना -साधना करने से आत्मा जब कर्मों को बहुत हद तक क्षीण कर डालता है, तभी उसके लिए निश्चित हो जाता है कि वह चार घातिकर्मों का क्षय करके शीघ्र ही केवली बनकर सिद्धि-मुक्ति प्राप्त कर सकेगा। असोच्चा केवली उसे कहा जाता है, जो केवली, केवली के श्रावक, श्राविका, उपासक-उपासिका तथा केवलीपाक्षिक ( स्वयंबुद्ध), केवलीपाक्षिक के १. (क) देखें-मरुदेवी माता का वृत्तान्त - जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति' तथा 'उसहचरियं' में (ख) देखें - भरत चक्रवर्ती का चरित्र - त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित, पर्व 9 में २. (क) देखें - शिवराजर्षि का चरित्र - भगवती, श. ११, उ. ९ (ख) देखें - मुद्गल परिव्राजक का वृत्तान्त - भगवती, श. ११, उ. १२, सू. १७-२४ For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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