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________________ * २५४ * कर्मविज्ञान : भाग ९ * (२) बकुश, (३) कुशील (प्रतिसेवना कुशील और कषाय कुशील), (४) निर्ग्रन्थ, और (५) स्नातक। इन पाँचों के जहाँ चारित्र सम्बन्धी पृच्छा की गई है, वहाँ निर्ग्रन्थ और स्नातक में एकमात्र यथाख्यात चारित्र की प्ररूपणा की गई है तथा निर्ग्रन्थ और स्नातक को मूलगुणों एवं उत्तरगुणों का प्रतिसेवी नहीं बताया गया है। इसके पश्चात् जहाँ इन पाँचों के ज्ञान की चर्चा की गई है, वहाँ निर्ग्रन्थ में चार ज्ञान तक बताए गये हैं, जबकि स्नातक में एकमात्र केवलज्ञान बताया गया है। पुलाक से लेकर निर्ग्रन्थ तक तीनों योगों से युक्त सयोगी होता है किन्तु स्नातक (निर्ग्रन्थ) सयोगी भी होता है, अयोगी भी। निर्ग्रन्थ उपशान्तकषायी वीतरागी भी होता है, क्षीणकषायी वीतरागी भी, जबकि स्नातक एकमात्र क्षीणकषायी वीतरागी होता है। यद्यपि निर्ग्रन्थ जब तक उपशान्तकषायी रहता है, उसका मोह क्षीण नहीं होता, तब तक उसे केवलज्ञान नहीं होता, किन्तु जो क्षीणकषायी (क्षीणमोही) निर्ग्रन्थ हैं, उनको तथा स्नातक निर्ग्रन्थों को अवश्य ही केवलज्ञान प्राप्त हो जाता है। केवली हो जाने के बाद उनका सर्वकर्म मुक्तिरूप मोक्ष भी निश्चित है। स्नातक निर्ग्रन्थ के ५ प्रकार बताये गये हैं-(१) अच्छवी (अछवि या अक्षपी), (२) अशबल, (३) अकर्मांश (घातिचतुष्टयरहित), (४) संशुद्ध (विशुद्ध केवलज्ञान-दर्शनधारक), और (५) अपरिस्रावी (कर्मबन्ध-प्रवाह से रहित)।' गृहस्थ केवली भी सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हुए हैं, होते हैं कतिपय लोगों का मन्तव्य है कि गृहस्थ कभी केवलज्ञानी नहीं हो सकता, किन्तु जैन-कर्मविज्ञान तथा तीर्थंकर भगवान महावीर का यह मन्तव्य नहीं है। उन्होंने १५ प्रकार के सिद्ध बताये हैं, उनमें एक है 'गृहलिंगसिद्धा'। जब गृहस्थवेश में सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो सकता है, तब गृहस्थवेश में केवली क्यों नहीं हो सकता? मरुदेवी माता गृहस्थवेश में पहले मोहकर्म को क्षय करने के साथ ही, अन्य तीन घातिकर्मों को क्षय करके केवलज्ञानी हुईं, तत्पश्चात् शेष चार अघातिकर्मों का क्षय करके सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हुईं। भरत चक्रवर्ती को शीशमहल में खड़े-खड़े गृहस्थवेश में ही मोहकर्म क्षय होते ही, शेष तीन घातिकर्मों का क्षय हो जाने से केवलज्ञान हो गया था। तत्पश्चात् वे सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हुए। इतना ही नहीं, 'स्थानांगसूत्र (स्था. ८, सू. ३६) में बताया है कि चातुरन्त चक्रवर्ती राजा भरत के आठ उत्तराधिकारी पुरुषयुग राजा (गृहस्थवेश में) लगातार (केवली होकर) सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वृत्त और सर्वदुःखों से रहित १. भगवतीसूत्र, विवेचन, खण्ड ३, श. २५, उ. ६, सू. ३, १०, ३३-३४, ४१, ७७-७८, १३१-१३२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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