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________________ * मोक्ष की अवश्यम्भाविता का मूल : केवलज्ञान: क्या और कैसे-कैसे ? * २५३ * सामान्य केवली में ये आध्यात्मिक अर्हताएँ तो होती हैं, किन्तु भौतिक अर्हताएँ होनी अनिवार्य नहीं हैं। प्रत्येक युग में ऐसी विशिष्ट अर्हता वाले तीर्थंकर हुए हैं, होते हैं और होंगे। वर्तमान में महाविदेह क्षेत्र में विहरमान बीस तीर्थंकर हैं । भगवान महावीर के शासन में तीर्थंकर नामगोत्र बाँधने वाले नौ व्यक्ति 'स्थानांगसूत्र' में बताया गया है कि भगवान महावीर के धर्मशासन (संघ) में तीर्थंकर नामगोत्र बाँधने वाले ९ व्यक्ति हुए हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं (१) मगध- नरेश श्रेणिक राजा, (२) सुपार्श्व (भगवान महावीर के गृहस्थपक्षीय चाचा), (३) कोणिक - पुत्र उदायी - जिसने कोणिक के बाद पाटलिपुत्र में प्रवेश किया। वह शास्त्रज्ञ और चारित्रवान् गुरु की सेवा करता था। किसी शत्रु राजा ने उदायी राजा का सिर काटकर लाने के लिए बहुत पारितोषिक देने की घोषणा कर रखी थी। एक नकली साधुवेशी ने पौषधरत उदायी का सिर छुरी से काट लिया। उस समय शुभ ध्यान करते हुए उदायी राजा ने तीर्थंकर गोत्र बाँधा। (४) पोट्टिल अनगार - 'अनुत्तरौपपातिकसूत्र' में वर्णित पोट्टिल अनगार से ये पोट्टिल अनगार भिन्न हैं। जो तीर्थंकर होकर भरतक्षेत्र से ही सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होंगे। (५) दृढायु, (६-७) शंख श्रावक और पोक्खली श्रावक - ये दोनों भगवान महावीर के श्रावक थे । व्रत, शील, तपश्चरण आदि करते हुए अन्त में एक मास का संथारा करके प्रथम देवलोक में देव होंगे । यथासमय तीर्थंकर के रूप में जन्म लेकर स्व-पर-कल्याण करते हुए सिद्ध होंगे। ( ८ ) सुलसा - प्रसेनजित् राजा के नाग नामक सारथी की पत्नी थी। देव ने इसके सम्यक्त्व की परीक्षा ली, जिसमें पूर्णतया उत्तीर्ण हुई। तीर्थंकर गोत्र बाँधा (९) रेवती - जिसने भगवान महावीर के शरीर में एक बार रक्तातिसार का प्रकोप होने पर उलटभाव से विजौरापाक बहराया था। उस समय उत्कृष्ट भावों के कारण रेवती ने तीर्थंकर गोत्र बाँधा । ये नौ ही भविष्य में तीर्थंकर होंगे। तीर्थंकर केवली होने के बाद इनका मोक्ष निश्चित है । ' निर्ग्रन्थ और स्नातक (निर्ग्रन्थ) केवली ‘भगवतीसूत्र' (श. २५, उ. ६) में पाँच प्रकार के निर्ग्रन्थों के विषय में विविध पहलुओं से निरूपण किया गया है। वे पाँच प्रकार के निर्ग्रन्थ हैं - ( 9 ) पुलाक, १. (क) देखें - तीर्थंकर केवली के सम्बन्ध में विस्तृत वर्णन कर्मविज्ञान, भा. ८ में विशिष्ट अरिहंत : तीर्थंकर' वाले निबन्ध में (ख) स्थानांगसूत्र, स्था. ४, उ. २, सू. २६१ टीका (ग) वही, स्था. ९, सू. ६९१ (घ) जैनसिद्धान्त बोल संग्रह, भा. ३, बोल १६३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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