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* २५२ * कर्मविज्ञान : भाग ९ *
प्रत्येकबुद्ध बनकर भूमण्डल में विचरण करने लगे। अन्त में केवलज्ञान प्राप्त करके मोक्ष पहुंचे।
'स्थानांगसूत्र' में बताया गया है कि प्रत्येकबुद्ध केवली अपने ही संसार का अन्त करते हैं, जबकि तीर्थंकर केवली 'स्व' और 'पर' दोनों के संसार का अन्त करते हैं।
अनाथी मुनि, समुद्रपालित तथा कपिल केवली आदि स्वयंबुद्ध केवली थे। बुद्धबोधित केवली-किसी ज्ञानी आचार्य या स्वयंबुद्ध आदि द्वारा प्रतिबुद्ध होकर रत्नत्रय की साधना करके केवली होते हैं। प्रत्येकबुद्ध केवली, स्वयंबुद्ध केवली या बुद्धबोधित केवली महासत्त्वशाली होते हैं। ये प्रायः एकाकी विचरण करते हैं। बड़े-से-बड़े परीषह या उपसर्ग को समभाव से सहते हैं। ये प्रायः संघबद्ध होकर साधना नहीं करते। बुद्धबोधित केवली में हम हरिकेशबल मुनि को उदाहरण के रूप में ले सकते हैं। तीर्थकर केवली की ये विशेषताएँ सामान्य केवली में नहीं होती
तीर्थंकर केवली की अन्य विशेषताएँ भी होती हैं, जैसे-पहले बता चुके हैं कि तीर्थंकर नामगोत्रकर्म बाँधने के जो २0 बोल हैं (या दिगम्बर परम्परानुसार १६ कारण भावनात्मक बोल हैं), उनमें से एक, अनेक या सभी बोलों की विशुद्ध भावपूर्वक आराधना करने से वे तीर्थंकर नामकर्म बाँधते हैं। तीर्थंकर नामकर्म बाँधते ही उदय में नहीं आता। किन्तु यह निश्चित हो जाता है कि चार घातिकर्मों का क्षय तीर्थंकर के भव में करके अवश्य ही केवलज्ञान प्राप्त करेंगे और उस भव का आयुष्य पूर्ण होते ही शेष चार अघातिकर्मों का क्षय करके वे पूर्ण विदेहमुक्त होंगे। 'उत्तराध्ययनसूत्र' में यह भी बताया है कि दस महान् आत्माओं की उत्कृष्ट भावपूर्वक वैयावृत्य करने से तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध होता है। इसके अतिरिक्त तीर्थंकर के भव में केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त होने पर उनको ३४ अतिशय तथा वाणी के ३५ अतिशय प्राप्त होते हैं। ये विशेषताएँ तीर्थंकर में ही होती हैं-सामान्य केवली में नहीं। तीर्थंकर चतुर्विध धर्मतीर्थ रूप संघ की स्थापना करते हैं. उसका संचालन उनके गणधर करते हैं। सामान्य केवली धर्मसंघ की स्थापना नहीं करता। अरिहंत तीर्थंकर १८ दोषों से रहित तथा १२ गुणों से युक्त होते हैं, जबकि
१. (क) देखें-प्रत्येकबुद्धों के विशेष विवरण के लिए उत्तराध्ययन का ९वाँ नमिपवज्जा नामक
अध्ययन तथा १८३ संजतीय अध्ययन की गा. ४२-५१. विवेचन (आ. प्र. स.,
ब्यावर) (ख) देखें-उत्तराध्ययनसूत्र के अ. २0 में अनाथी मुनि का तथा अ. २१ में समुद्रपालित
स्वयंबुद्ध का वृत्तान्त २. उत्तराध्ययन, अ. २९, सू. ४३
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