________________
* मोक्ष की अवश्यम्भाविता का मूल : केवलज्ञान: क्या और कैसे-कैसे ? * २४३ *
कर्म। जबकिं सिद्ध-परमात्मा के ये चारों अघातिकर्मों का एक-साथ क्षय हो जाता है। '
केवली कदापि यक्षाविष्ट नहीं होते, न ही सावद्य या मिश्र भाषा बोलते हैं
अन्यतीर्थिकों ने केवली के विषय में जो आक्षेप किया है कि वे यक्षाविष्ट हो जाते हैं, तब कभी-कभी मृषा और सत्यामृषा (मिश्र) भाषा भी बोलते हैं, इसका खण्डन करते हुए भगवान महावीर ने कहा- केवली न तो कदापि यक्षाविष्ट होते हैं और न मृषा तथा सत्यामृषा भाषा बोलते हैं । केवली अनन्तवीर्य सम्पन्न होते हैं, इसलिए वे किसी भी देव के आवेश से आविष्ट नहीं होते । जब वे कदापि यक्षाविष्ट होते ही नहीं, तब उनके द्वारा मृषा और सत्यामृषा भाषा बोलने का सवाल ही नहीं आता । फिर केवली तो राग-द्वेष-मोह से सर्वथा रहित, सदैव अप्रमत्त होते हैं, वे सावद्य भाषा बोल ही नहीं सकते। वैसे शास्त्रों में यत्र-तत्र अनेक प्रकार से केवलज्ञानी होने के विविध वृत्तान्त पाये जाते हैं । उन पर हम केवली के ये प्रकार निश्चित कर सकते हैं-(१) सयोगी केवली, (२) अयोगी केवली, (३) अन्तकृत् केवली, (५) प्रथमसमय केवली, (६) अप्रथमसमय केवली, (६) प्रत्येकबुद्ध केवली, (७) स्वयंबुद्ध केवली, (८) बुद्धबोधित केवली, (९) चरमशरीरी केवली, (१०) स्नातक निर्ग्रन्थ केवली, (११) केवली- समुद्घातकर्ता केवली, (१२) केवली- समुद्घात अकर्त्ता केवली, (१३) क्षीणमोही केवली, (१४) गृहस्थावस्था केवली, (१५) क्षीणभोगी केवली, (१६) तीर्थंकर केवली ।
तीर्थंकर की अपेक्षा से परम अवधिज्ञानी और मनःपर्यायज्ञानी भी केवली, जिन, अर्हंत कहे जाते हैं
इनमें अयोगी केवली के सिवाय अन्य सभी केवली भूतपूर्व अवस्था को लेकर प्रतिपादित किये गये हैं । अन्य सभी केवली चार घातिकर्मों का सर्वथा क्षय करके ही केवली बनते हैं, अन्यथा नहीं । फिर भी शास्त्रकारों ने पूर्वावस्था को लेकर अवधिज्ञानी और मनः पर्यायज्ञानी को भी किसी अपेक्षा से केवली, जिन और अरिहंत कहा है। उसका तात्पर्य यही प्रतीत होता है कि तीर्थंकर को जन्म से ही परम अवधिज्ञान होता है और दीक्षा लेने के पश्चात् मनःपर्यायज्ञान भी हो जाता है, बाद में उनका केवली होना अवश्यम्भावी होने से तीर्थंकरों की अपेक्षा से परम अवधिज्ञानी और मनःपर्यायज्ञानी तीर्थंकर भी केवली और जिन या अर्हत में समाविष्ट कर लिये प्रतीत होते हैं । ३
Jain Education International
१. स्थानांगसूत्र, स्था. ४ उ. १, सू. ४२-४४ तथा स्था. ३. उ. ४, सू. ५२७
२. भगवतीसूत्र. श. १८, उ. ७, सू. २
३. स्थानांगसूत्र, स्था. ३, उ. ४, सू. ५१२-५१४
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org