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________________ * २४२ * कर्मविज्ञान : भाग ९ * केवलज्ञानी के अन्य कुछ लक्षण जैसे छद्मस्थ मनुष्य हँसता है या उत्सक होता है, वैसे केवली मनुष्य न तो हँसता है, न ही उत्सुक होता है, क्योंकि उसके चारित्रमोहनीय कर्म का क्षय हो चुका है। इसी तरह केवली पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशा की तथा ऊर्ध्व और अधोदिशा की मित और अमित सभी वस्तुओं को जान-देख सकता है। केवली सर्वज्ञ भगवान समस्त वस्तुओं को जानता-देखता है। सर्वतः (सब ओर से), सर्वकाल में, सर्वभावों (पदार्थों) को जानता-देखता है। केवलज्ञानी के अनन्त ज्ञान-अनन्त दर्शन होता है। उसका ज्ञान और दर्शन निरावरण होता है। वह आरगत, पारगत यावत् सभी प्रकार के दूरवर्ती निकटवर्ती शब्दों को सुनता-जानता है। छद्मस्थ सर्व पदार्थों को जानता-देखता नहीं।' केवली के परिचय के लिए अन्य विशेषताएँ भी 'भगवतीसूत्र' में छद्मस्थ और केवली के अन्तर को बताते हुए केवली की अन्य कतिपय विशेषताएँ भी बताई हैं कि अन्तकर, अन्तिमशरीरी, चरमकर्म (शैलेशी अवस्था के अन्तिम समय में अनुभव होने वाले कर्म) को तथा चरमनिर्जरा को (उसके अनन्तर समय में जो अवशिष्ट समस्त कर्म जीव प्रदेशों से झड़ जाते हैं, उन्हें) केवली मनुष्य पारमार्थिक प्रत्यक्ष (अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष) से जानते-देखते हैं, जबकि छद्मस्थ मनुष्य केवली की तरह पारमार्थिक प्रत्यक्ष रूप में इन्हें नहीं जानता-देखता; किन्तु किसी केवली से, केवली के श्रावक या श्राविका से, केवली. के उपासक या उपासिका से, केवली पाक्षिक (स्वयंबुद्ध) से या केवली पाक्षिक के श्रावक-श्राविका अथवा उपासक-उपासिका आदि में से किसी भी एक से सुनकर जानता और देखता है। इसके अतिरिक्त इन्द्रिय-प्रत्यक्ष, अनुमान एवं आगम आदि प्रमाणों द्वारा भी वह जान-देख सकता है।' प्रथमसमयवर्ती केवली के चार घातिकर्म क्षीण हो जाते हैं, चार अघातिकर्म शेष रहते हैं 'स्थानांगसूत्र' में बताया गया है कि प्रथमसमयवर्ती केवली के चार कर्मांश (घातिकर्म) क्षीण हो जाते हैं-मोहनीय, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय। जबकि मोहनीयकर्म के क्षय होते ही, बाकी के तीन घातिकर्म क्षीणमोही अर्हत के ज्ञानावरणीयादि एक साथ तत्काल क्षीण हो जाते हैं तथा केवलज्ञान-केवलदर्शन उत्पन्न होने के पश्चात् केवली जिन अर्हत चार कर्मांशों (सत्कर्मों) (अघातिकर्मों) का वेदन करते हैं। जैसे-वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र १. भगवतीसूत्र, श. ५, उ. ४, सू. १, ४. ६ २. वही, श. ५, उ. ४, सू. २५-२८, पृ. ४४७-४४९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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