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________________ * २४४ * कर्मविज्ञान : भाग ९ * सामान्य (भवस्थ) केवली और सिद्ध केवली में अन्तर सयोगी केवली को हम भवस्थ केवली कह सकते हैं। सिद्ध केवली वह है, जो आठों ही कर्मों से, जन्म-मरण से, मन-वचन-काया से रहित निरंजन, निराकार और अशरीरी सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो चुके हैं। 'भगवतीसूत्र' के १४वें शतक में भवस्थ (सयोगी केवली ) और सिद्ध ( अयोगी ) केवली के ज्ञान सम्बन्धी प्रश्नोत्तर इस प्रकार हैं- क्या (भवस्थ) केवली और सिद्ध भगवान दोनों छद्मस्थ को अवधिज्ञानी को परम अवधिज्ञानी को, समस्त केवलज्ञानियों को तथा केवलज्ञानी सिद्ध को जानते-देखते हैं? तथैव सिद्ध भी ( दूसरे ) सिद्ध को जानते - देखते हैं ? इस सब प्रश्नों का उत्तर भगवान ने 'हाँ' में दिया है। आगे का प्रश्न है- क्या केवली और सिद्ध भगवान दोनों बोलते हैं और प्रश्न का उत्तर भी देते हैं तथा वे दोनों आँखें खोलते-मूँदते भी हैं? शरीर का आकुंचन-प्रसारण करते हैं तथा खड़े होते एवं स्थिर रहते (बैठते, करवट बदलते या लेटते ) एवं निवास करते अथवा अल्पकालिक निवास करते हैं ? इनके उत्तर में भगवान ने कहा - " केवली बोलने से लेकर अल्पकालिक निवास क्रिया तक करते हैं, क्योंकि उनके मन-वचन-कांया तीनों का योग है; जबकि सिद्ध प्रभु बोलने से लेकर निवास करने तक की क्रिया नहीं करते, क्योंकि (भवस्थ) केवली सयोगी होने से उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषाकार-पराक्रम से सहित हैं; जबकि सिद्ध भगवान अशरीरी - अयोगी होने से उत्थानादि से रहित हैं। इसी प्रकार केवली और सिद्ध भगवान दोनों प्रथम नरक की रत्नप्रभा पृथ्वी से लेकर ईषत् प्राग्भार पृथ्वी तक जानते-देखते हैं, तथा परमाणु- पुद्गल, द्विप्रदेशी स्कन्ध एवं यावत् अनन्तदेशी स्कन्ध को भी जानते-देखते हैं।' यह हुई सयोगी केवली और अयोगी केवली (सिद्ध भगवान ) के अन्तर की संक्षिप्त झाँकी | सामान्य केवली और सिद्ध केवली में मूलभूत अन्तर सामान्य केवली और सिद्ध (मुक्त) केवली में दूसरा सबसे बड़ा अन्तर यह है कि जिसके सम्बन्ध में ‘प्रज्ञापनासूत्र' में प्रश्न प्रस्तुत करके समाधान दिया गया हैसभी प्रकार के केवली तो कृतकृत्य और अनन्त ज्ञानादि से परिपूर्ण होते हैं, उनका प्रयोजन शेष नहीं रहता; फिर उन्हें (सात प्रकार के समुद्घातों में से) केवली १. जहा णं केवली छउमत्थं जाणति पासति, तहा णं सिद्धे वि छउमत्थं जाणति पासति । एवं आहोहियं परमाहोहियं वि जाणति पासति । जहा णं केवली सिद्धं जाणति पासति, तहा णं सिद्धे विसिद्धं जाणति पासति । जहा णं केवली भासेज्ज वा, वागरेज्ज वा णो तहा णं सिद्धे भासेज्ज वा वागरेज्ज वा । केवली णं सउट्ठाणे सकम्मे सबले सवीरिए - सपुरिसक्कारपरक्कमे; सिद्धे णं अणुट्ठाणे जाव अपुरिसपरक्कमे । एवं जहा णं केवली उम्मिसेज्ज वा निमिसेज्ज वा, आउट्टेज्ज वा, पसारेज्ज वा एवं ठाणं वा सेज्जं वा निसीहियं वा चेएज्जा, णो तहा सिद्धे - भगवतीसूत्र, श. १४, उ. १०, सू. १-२४, संक्षिप्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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