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* २४० * कर्मविज्ञान : भाग ९ *
केवली में दस अनुत्तररूप विशेषताएँ
इसी प्रकार 'स्थानांगसूत्र' में केवली भगवान की विशेषता बताते हुए कहा हैउनमें दस बातें अनुत्तर होती हैं। जिससे बढ़कर दूसरी कोई वस्तु न हो, यानी जो सबसे उत्कृष्ट हो, उसे अनुत्तर कहते हैं । केवलज्ञानी परमात्मा में दस अनुत्तर इस प्रकार हैं
(१) अनुत्तर ज्ञान - ज्ञानावरणीय कर्म के सर्वथा क्षय से केवलज्ञान उत्पन्न होता है । केवलज्ञान से बढ़कर दूसरा कोई ज्ञान नहीं है। इसलिए केवली भगवान का ज्ञान अनुत्तर कहलाता है।
(२) अनुत्तर दर्शन - दर्शनावरणीय अथवा दर्शनमोहनीय के सम्पूर्ण क्षय से केवल दर्शन (अथवा क्षायिक सम्यग्दर्शन) उत्पन्न होता है। उससे बढ़कर कोई दर्शन नहीं है।
(३) अनुत्तर चारित्र - चारित्रमोहनीय कर्म के सर्वथा क्षय से अनुत्तर (यथाख्यात) चारित्र उत्पन्न ( या प्रकट) होता है ।
(४) अनुत्तर तप - केवली के शुक्लध्यानादि रूप अनुत्तर तप होता है।
(५) अनुत्तर वीर्य - वीर्यान्तराय कर्म के सर्वथा क्षय से अनन्त अनुत्तर वीर्य ( आत्मिक शक्ति) प्रकट होता है ।
(६) अनुत्तर क्षान्ति (क्षमा) = क्रोध का उत्पन्न न होना ।
(७) अनुत्तर मुक्ति - उत्कृष्ट निर्लोभा बाह्य आभ्यन्तर परिग्रह. (सजीव-निर्जीव पर-पदार्थ) के प्रति ममता - मूर्च्छा का अभाव ।
(८) अनुत्तर आर्जव (उत्कृष्ट सरलता) - निश्चलता, मायाकपट का अभाव । (९) अनुत्तर मार्दव ( उत्कृष्ट मृदुता = कोमलता ) - अहंकार-मद-मत्सर आदि
का अभाव।
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(१०) अनुत्तर लाघव ( हलकापन - लघुता ) - घातिकर्मों का सर्वथा क्षय हो जाने के कारण उन पर संसार का = कर्मों का या जन्म-मरणादि का बोध नहीं रहता । क्षान्ति आदि ५ चारित्र के भेद हैं और ये चारित्रमोहनीय कर्म के क्षय से उत्पन्न होते हैं। '
ये पाँच कारण केवलज्ञान - केवलदर्शन उत्पन्न होने में बाधक नहीं
केवली को उत्पन्न होता हुआ केवलज्ञान- केवलदर्शन अपने प्राथमिक क्षणों में स्तम्भित नहीं होता-(१) पृथ्वी को छोटी या अल्पजीव वाली देखकर, (२) कुन्थुआ
१. स्थानांगसूत्र, स्था. १०, सू. १३८
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