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________________ * २३८ * कर्मविज्ञान : भाग ९ * है, वे समस्त कमों का अन्त करने वाले, चरमशरीरी हुए हैं, अथवा जिन्होंने समस्त दुःखों का अन्त किया है, करते हैं या करेंगे; वे सब उत्पन्न (केवल) ज्ञान-दर्शनधारी अर्हत, जिन या केवली होकर (यानी मोहनीय प्रमुख चार घातिकर्मों का क्षय करके) तत्पश्चात् ही सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त हुए हैं, सर्वदुःखों का अन्त किया है, करते हैं, करेंगे।'' निष्कर्ष यह है कि मनुष्य चाहे कितना ही उच्च संयमी हो, परिमित अवधिज्ञानी हो या परम अवधिज्ञानी हो, ग्यारहवें-बारहवें गुणस्थान तक पहुँचा हुआ हो, यद्यपि वह उसी भंव में मोक्ष जाने. वाला हो, किन्तु जाता है केवली (केवलज्ञानी) होकर ही। इसीलिए केवली को अलमस्तु (मोक्ष के लिए पूर्ण समर्थ) कहा गया है।' छद्मस्थ और केवली में अन्तर “छद्मस्थ (जो पूर्ण ज्ञानी नहीं है) और केवली में अन्तर यह है कि केवली निम्नोक्त दस स्थानों (पदार्थों) को सर्वभावेन (सम्पूर्ण रूप से) जानता-देखता है(१) धर्मास्तिकाय, (२) अधर्मास्तिकाय, (३) आकाशास्तिकाय, (४) शरीरमुक्त जीव, (५) परमाणु-पुद्गल, (६) शब्द, (७) गन्ध, (८) वायु, (९) यह 'जिन' होगा या नहीं ?, और (१०) यह सभी दुःखों का अन्त करेगा या नहीं? जबकि छद्मस्थ जीव इन दस पदार्थों को समग्र रूप से नहीं जान पाता, नहीं देख पाता।” 'भगवतीसूत्र' में यह भी बताया गया है-अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष ज्ञानी केवली भगवान आदानों (इन्द्रियों) से नहीं जानते-देखते, क्योंकि उनका ज्ञान और दर्शन पूर्णतः निरावरण, निराबाध, अप्रतिहत आत्म-प्रत्यक्ष हो जाता है। "भगवतीसत्र' में एक जगह यह भी बताया है कि केवली अन्तकर को, अन्तिमशरीरी को तथा चरमकर्म और चरमनिर्जरा को जानता-देखता है, जबकि १. “छउमत्थे णं भंते ! मणुसेऽतीतमणंतं सासतं समयं, केवलेणं संजमेणं, केवलेणं संवरेणं, केवलं बंभचेरवासेणं, केवलाहिं पवयणमायाहिं सिझिसु बुझिसु जाव सव्वदुक्खाणमंतं करिंसु?" “गोयमा ! णो इणढे समढे।'' “गोयमा ! जे केइ अंतकरा वा, अंतिमसरीरिया वा, सव्वदुक्खाणमंतं करेंसु वा, करेंति वा, करिस्संति वा. सव्वे ते उप्पन्ननाण-दंसणधरा अरहा जिणे केवली भवित्ता (तओ पच्छा सिज्झंति बुझंति मुच्चंति परिनिव्वायंति सव्वदुक्खाणमंतं करेंसु वा करेंति वा करिस्संति वा।" -भगवतीसूत्र, श. १, उ. ४, सू. १२-१८ वही, श. ५, उ.५, स.१ में भी पाठ है २. (क) स्थानांगसूत्र, स्था. १०. सू. १०९ (ख) भगवतीसूत्र, खण्ड २, श. ८, उ. २, सू. २०-२१ ३. “केवली, णं भंते ! आयाणेहिं जाणइ पासइ?" "गोयमा ! णो इणढे सम8। जाव निम्बुडे निरावरणे णाण-दंसणे केवलिस्स!" -भगवती, श. ५, उ. ४, सू. ३४/१-२, विवेचन, पृ. ४५४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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