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________________ * २३० * कर्मविज्ञान : भाग ९ * जैसे अंगों का संकोच कर लेता है, वैसे ही पण्डित साधक पापरूप कार्यों को सम्यक धर्मध्यानादि की भावना से संकुचित कर ले, (१४) अनशनकाल में मानसिक-वाचिक-कायिक समस्त व्यापारों (प्रवृत्तियों), अपने हाथ-पैरों को तथा अकुशल संकल्पों से मन को रोक ले तथा अनुकूल-प्रतिकूल विषयों में राग-द्वेष का . त्याग करके इन्द्रियों को संकुचित कर ले, (१५) पापरूप परिणाम वाली दुष्कामनाओं का, (१६) पापरूप भाषा दोष का त्याग करे, (१७) लेशमात्र भी अभिमान और माया न करे, (१८) इनके अनिष्ट फलों को जानकर सुख-प्राप्ति के. गौरव में उद्यम न हो, (१९) उपशान्त, निःस्पृह और मायारहित (सरल) होकर विचरण करे, (२०) वह प्राणि-हिंसा से दूर रहे, (२१) अदत्त ग्रहण (चौर्यकर्म) न करे, (२२) मायायुक्त असत्य न बोले, (२३) प्राणियों के प्राणों का उत्पीड़न केवल काया से ही नहीं, मन और वचन से भी न करे, (२४) बाहर और भीतर से संवृत (गुप्त) होकर रहे, (२५) इन्द्रिय-दमन करे, (२६) मोक्षदायक सम्यग्दर्शनादि रूप संयम की आराधना करे, (२७) जितेन्द्रिय रहे, (२८) पाप से आत्मा को बचाए, (२९) किसी के द्वारा अतीत में किये गए, वर्तमान में किये जाते हुए और भविष्य में किये जाने वाले पाप का मन-वचन-काया से भी अनुमोदन न करे।' मनोबलप्राण द्वारा आत्म-शक्ति (पण्डितवीर्य) का विकास और जागरण कैसे हो ? साधक के पास पाँच इन्द्रियाँ, मन, वचन, काया, उच्छ्वास-निःश्वास और आयु ये १0 बलप्राण हैं, जिनके माध्यम से आत्म-शक्तियाँ अभिव्यक्त होती हैं। इन दशविध प्राणों में मन, वचन और काया की शक्ति की अनेक धाराएँ हैं। जैसे-मन की शक्ति के साथ बौद्धिक-शक्ति, चित्त की शक्ति, हृदय की शक्ति, संकल्प-शक्ति, भावना-शक्ति, विचार-शक्ति, स्मरण-शक्ति, निर्णय-शक्ति निरीक्षण-शक्ति, परीक्षण-शक्ति, विवेक-शक्ति, प्रतिभा-शक्ति, विश्लेषण-शक्ति, मानसिक-शक्ति इत्यादि मन से सम्बन्धित शक्तियाँ हैं, ये जब आत्म-स्वभाव में, आत्म-गुणों में अथवा आत्मा के चिन्तन-मनन में, आत्मालोचन में, आत्म-विकास, में, आत्म-निरीक्षण में, आत्म-श्रद्धा में, आत्म-विश्वास में अथवा बारह प्रकार आत्मानप्रेक्षा में, मैत्री आदि चार भावनाओं में तथा धर्मध्यान के अन्तर्गत पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ ध्यान में अथवा किसी त्याग, तप, नियम, संयम एवं प्रत्याख्यान तथा प्रतिज्ञा के दृढ़ संकल्प में लगती हैं, तब आत्म-शक्तियों का जागरण प्रारम्भ हो जाता है। मन से सम्बन्धित इन और इनके सदृश अन्य शक्तियों का विकास एकाग्रता से, ध्यान से, एकनिष्ठा से, मनोनिग्रह से, मन की स्थिरता से होता है। १. सूत्रकृतांगसूत्र, श्रु. १, अ. ८, गा. १०-२१, सारांश (आ. प्र. समिति, ब्यावर), ३५१ पृ. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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