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________________ * परमात्मभाव का मूलाधार : अनन्त शक्ति की अभिव्यक्ति * २३१ * भारतीय दार्शनिकों ने मन की शक्तियों, आत्म-शक्तियों के जागरण में सर्वोपरि माना है। जितनी भी धार्मिक क्रियाएँ हैं, आध्यात्मिक अनुष्ठान हैं, द्वादशविध तप हैं, स्वाध्याय, जप, परीषह-विजय, कषायोपशमन, विषयों से विरक्ति आदि हैं तथा क्षमादि दशविध धर्म का या रत्नत्रयरूप धर्माचरण है, उन सब को मनोयोगपूर्वक, उपयोगपूर्वक, निष्कामभावपूर्वक, स्वेच्छापूर्वक, उद्देश्य एवं लक्ष्यपूर्वक संवर-निर्जरा की (कर्मक्षय की) दृष्टि से करने का विधान है। समता, क्षमा, समाधि, अनुकम्पा, दया, सहिष्णुता, तितिक्षा, अहिंसा-सत्यादि व्रतों की शक्तियों का विकास करने में एकाग्र और स्थिर मन ही, स्थिर प्रज्ञा ही, स्थिर चित्त ही उपयोगी बनता है। औत्पातिकी, वैनयिकी, कार्यिकी और पारिणामिकी बुद्धियाँ भी बौद्धिक-शक्ति के विकास का परिणाम है, जो मन से ही सम्बन्धित है। सम्यग्दृष्टि को मोक्षलक्ष्य की ओर क्रियान्वित करने के लिए मन को ही माध्यम माना गया है। कहा भी है .“मन एव मनुष्याणां, कारणं बन्ध-मोक्षयोः।'' । -(घातिकर्मों के) बन्ध और (उनसे) मुक्त होने का कारण मनुष्यों का मन ही है। परभावों, विभावों तथा हिंसादि पापकर्मों में मन दौड़ लगाता है तो सातवीं नरक तक की यात्रा कर लेता है, वही मन दूसरे ही क्षण शुभ भावों में गति-प्रगति करता है, तो सर्वार्थसिद्ध देवलोक तक पहुँच जाता है। जातिस्मरणज्ञान, प्रातिभज्ञान, दूर-विचार-सम्प्रेषणज्ञान, मनःपर्यायज्ञान आदि मन के ही चमत्कार हैं। मनोवैज्ञानिकों का कथन है कि यदि अवचेतन मन को सुसंस्कारों की ओर मोड़ा जाए, तो उसकी क्षमता बहुत अधिक बढ़ जाती है। चेतन (ज्ञात) मन की अपेक्षा भी अवचेतन (अज्ञात) मन को जगाने, विकसित और क्रियाशील बनाने से आत्म-शक्तियाँ अधिकाधिक अभिव्यक्त, जाग्रत और विकसित हो जाती हैं। इन्द्रियाँ एवं अंगोपांग अपने आप में कुछ नहीं हैं, पौद्गलिक (जड़) हैं, मन ही इनके • माध्यम से विभिन्न प्रवृत्तियाँ कराता है। अगर मन को शुभ ध्यान द्वारा आत्मा के स्वभाव में एकाग्र, तल्लीन, निश्चल और स्थिर कर दिया जाए तो उसकी शक्ति अनेक गुनी बढ़ सकती है। बौद्धिक-शक्ति, स्मरण-शक्ति, प्रतिभा-शक्ति आदि मानसिक शक्तियों का विकास भी एकमात्र आत्म-स्वभाव में स्थिरता की दृष्टि से किया जाए, अथवा ज्ञाता-द्रष्टा बनने के अभ्यास में स्थिर कर दिया जाए तो ये शक्तियाँ आत्म-शक्तियों के जागरण में सहायक निमित्त बन जाती हैं। वचनबलप्राण द्वारा पण्डितवीर्य कैसे अभिव्यक्त और जाग्रत हो ? दूसरा वचनबल है, जो आत्म-शक्तियों के जागरण में निमित्त बन सकता है। वाग्गुप्ति, मौन, भाषासमिति आदि के अभ्यास से वचनबल विकसित किया जा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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