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________________ * परमात्मभाव का मूलाधार : अनन्त शक्ति की अभिव्यक्ति * २२९ * प्रमादी अज्ञजन बालवीर्य (अज्ञानयुक्त शक्ति) का प्रयोग कैसे-कैसे करते हैं ? प्रमादी अज्ञानीजन सकर्मवीर्य या बालवीर्य का प्रयोग कैसे-कैसे करते हैं ? यह बताते हुए 'सूत्रकृतांग' में कहा गया है-"कई अज्ञानीजन शस्त्रास्त्रों से निर्दोष प्राणियों का वध करते हैं। कई लोग प्राणियों के लिए विघातक मंत्रादि का प्रयोग करते हैं। कतिपय असंयमी व्यक्ति मन-वचन-काया से अशक्त होने पर भी तथाकथित लौकिकशास्त्रों की दुहाई देकर इहलोक-परलोक दोनों के लिए जीव-हिंसा करते-कराते रहते हैं। वे मायीजन छल-कपट करके विविध कामभोगों में प्रवृत्त होते हैं। अपने सुख के पीछे अंधी दौड़ लगाने वाले वे लोग निर्दोष प्राणियों को मारने, काटने और चीरने में शक्ति लगाते हैं। वे प्राणिघातक अज्ञानीजन, जन्म-जन्मान्तर तक वैर बाँध लेते हैं। वे नये-नये. वैर में संलग्न होकर जीव-हिंसारूप पाप की परम्परा बढ़ाते हैं। इस प्रकार वे बालवीर्य-सम्पन्न लोग पापकर्मबन्ध करके उस साम्परायिक कर्मबन्धवश बार-बार राग-द्वेष का आश्रय लेकर पुनः-पुनः पापकर्म करते रहते हैं। ये सभी पराक्रम इसलिए बालवीर्य हैं कि वह प्राणिघात पर-पीडादायक कषायवर्द्धक, वैर-परम्परावर्द्धक, पापकर्मजनक एवं राग-द्वेष-मोहवर्द्धक हैं।' — अकर्मवीर्य = पण्डितवीर्य की साधना के उनतीस प्रेरणासूत्र _ 'सूत्रकृतांग' में पण्डित (अकर्म) वीर्य की साधना के २९ प्रेरणासूत्र दिये गए हैं, जिनका सारांश यह है-(१) वह भव्य (मोक्षगमन-योग्य) हो, (२) अल्प- कषायी हो, (३) कषायात्मक बन्धनों से उन्मुक्त हो, (४) पापकर्म के कारणभूत आम्रवों को हटाकर तथा कषायात्मक बन्धनों को काटकर शल्यवत् शेष कर्मों को काटने के लिए उद्यत रहे, (५) मोक्ष की ओर ले जाने वाले सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र के लिए पुरुषार्थ करे, (६) स्वाध्याय, ध्यान आदि मोक्षसाधक अनुष्ठानों में सम्यक् उद्यम करे, (७) धर्मध्यानारोहण के लिए बालवीर्य की दुःखदायकता एवं अशुभ कर्मबन्ध-कारणता का तथा सुगतियों में भी उच्च स्थानों एवं परिजनों के साथ संवास की अनित्यता का अनुप्रेक्षण करे, (८) इस प्रकार के चिन्तनपूर्वक इन सबके प्रति अपनी आसक्ति या ममत्व-बुद्धि हटा दे, (९) सर्वधर्ममान्य इस आर्य (रत्नत्रयात्मक मोक्ष) मार्ग को स्वीकार करे, (१०) पवित्र बुद्धि से धर्म के सार को जान-सुनकर आत्मा के ज्ञानादि गुणों के उपार्जन में उद्यम करे, (११) पापयुक्त अनुष्ठान ..। त्याग करे, (१२) अपनी आयु. का उपक्रम (अन्तकाल) किसी प्रकार जान जाए तो यथाशीघ्र संल्लेखनारूप या पण्डितमरणरूप अनशन (संथारे) का अभ्यास करे, (१३) कछुआ १. सूत्रकृतांगसूत्र, श्रु. १, अ..८, गा. ४-९, व्याख्या तथा सारांश (आ. प्र. समिति, ब्यावर) से भाव ग्रहण, पृ. ३४६-३४७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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