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________________ * २२८ * कर्मविज्ञान : भाग ९ * [साकार (ज्ञान) और निराकार (दर्शन) उपयोग रखकर द्रव्य-क्षेत्र - काल - भावानुरूप स्वविषयक पराक्रम का निश्चय - अध्यवसाय करना ], (८) योगबल ( मन-वचनकाया से अध्यात्म दिशा में प्रवृत्ति करना ), ( ९ ) तपोबल ( बारह प्रकार के बाह्य-आभ्यन्तर तप में खेदरहित तथा उत्साहपूर्वक पराक्रम करना), और (१०) संयम में पराक्रम (सत्रह प्रकार के संयम के पालन में तथा अपने संयम को निर्दोष रखने में पराक्रम करना) । ' ‘सूत्रकृतांग' में बालवीर्य (सकर्मवीर्य) की पहचान के कुछ संकेत बालवीर्य और पण्डितवीर्य, इन दोनों शक्तियों का आधार क्रमशः प्रमाद और अप्रमाद है। प्रमाद वह है, जिसके कारण जीव अपना आत्म-भाव भूलकर उत्तम अनुष्ठान से रहित हो जाता है । प्रमाद के भगवतीसूत्र अभयवृत्ति में ८ भेद बताए हैं - अज्ञान, संशय, मिथ्याज्ञान, राग-द्वेष, महाभ्रष्टता ( महाभ्रंश), धर्म में आचरण न करना और योगों का दुष्प्रणिधान | शास्त्र में प्रमाद के ५ भेद बताए गए हैं-मद्य, विषय, कषाय, निद्रा (निन्दा) और विकथा । ' सूत्रकृतांग' में बताया गया हैतीर्थंकर आदि महापुरुषों ने प्रमाद को कर्मबन्ध का एक विशिष्ट कारण इसलिए बताया है कि इसके कारण जीव आत्म-भान या आत्म-जागृति से रहित होकर अपनी सारी शक्ति (वीर्य) धर्म- विपरीत, अधर्म या पापयुक्त कार्यों में लगाकर अशुभ कर्मों का बन्ध करता रहता है । इसीलिए प्रमादयुक्त सकर्मा जीव का जो भी क्रियानुष्ठान होता है, उसे बालवीर्य (सकर्मवीर्य) कहा है। इसके विपरीत प्रमादरहित पुरुष के कार्य के पीछे सतत आत्म-भान, जागृति एवं विवेक होने के कारण उसके कार्य से कर्मबन्ध नहीं होता। वह अपनी सारी शक्ति अप्रमत्त होकर कर्मक्षय करने तथा हिंसादि आम्रवों एवं कर्मबन्ध के कारणों से दूर रहने और स्वभाव-रमण में लगाता है। इसलिए ऐसे अप्रमत्त तथा अकर्मा साधक के पराक्रम को पण्डितवीर्य कहा है। १. (क) सूत्रकृतांग नियुक्ति, गा. ९१-९७ (ख) सूत्रकृतांग (शीलांकवृत्ति), पत्रांक १६५ - १६७ तक का सारांश २. (क) माओ य मुणिदेहिं भणिओ अट्टभेयओ । अण्णा संसओ चैव मिच्छानाणं तहेव य ॥ रागो दोसो महभंसो, धम्मंमि य अणायरो । जोगाणं दुप्पणिहाणं अट्ठहा वज्जियव्वओ ॥ (ख) मज्जं विसय - कसाया निद्दा विगहा य पंचमी भणिया । (ग) पमायं कम्पमाहंसु, अप्पमायं तहाऽवरं । तभावादेसतो वा वि, बालं पंडितमेव वा ॥ Jain Education International -भगवती अ. वृत्ति, पत्रांक ५७ - प्रवचनसारोद्धार - सूत्रकृतांग, अ. ८, गा. ३, व्याख्या For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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